राम राम राम
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एक भी श्वास खाली खोय ना खलक बीच,
कीचड़ कलंक अंक धोय ले तो धोय ले;
उर अँधियारो पाप-पुंज सों भरी
है देह,
ज्ञानकी चराखाँ चित्त जोय ले तो जोय ले ।
मानखा जनम फिर ऐसो ना मिलेगा मूढ़,
परम प्रभुजीसे प्यारो होय ले तो होय ले;
छिन भंग देह ता में जनम सुधारिबो
है,
बीजके झबाके मोती पोय ले तो पोय ले ॥
भाई-बहिनोंने पैसोंको बहुत कीमती समझा है । पैसा इतना कीमती नहीं है,
जितना कीमती हमारा समय है । मनुष्य-जन्मका जो समय है,
वह बहुत ही कीमती है । मनुष्य-जन्मके समयको देकर हम मूर्खसे
विद्वान् बन सकते हैं । समयको देकर हम धनी बन झकते हैं । समय लगनेपर एक आदमीके परिवारके
सैकड़ों लोग हो जाते हैं । समयको लगाकर हम संसारमें मान,
आदर, प्रतिष्ठा आदि प्राप्त कर सकते हैं;
बहुत बड़ी जमीन-जायदाद आदिको अपने अधिकारमें कर सकते हैं । समय
लगनेसे स्वर्गादि लोकोंकी प्राप्ति हो सकती है । इतना ही नहीं,
मनुष्य-शरीरका समय लगानेसे हो जाय परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति,
जिसके बाद प्राप्त करना कुछ बाकी न रहे । इस प्रकार समय लगाकर सांसारिक सब चीजें प्राप्त हो सकती हैं; परन्तु
सब-की-सब चीजें, रुपये-पैसे आदि देनेपर भी जीनेका समय नहीं मिलता
।
जैसे, आपने सत्तर-पचहत्तर वर्षोंकी उम्रमेंसे साठ वर्ष रुपये कमानेमें
लगाये, साठ वर्षोंमें बहुत जमीन-जायदाद इकट्ठी कर ली,
मकान बना लिये, बहुत सम्पत्ति इकट्ठी कर ली । अब उस सम्पत्तिको पीछे दे करके
अगर हम साठ घंटे भी और जीना चाहें तो जी सकते हैं क्या ?
इसमें थोड़ा-सा विचार करें । जिस सम्पत्तिके संग्रहमें साठ वर्ष
खर्च हुए, उस सम्पूर्ण सम्पत्तिको देकर हम साठ घंटे भी खरीद सकते हैं क्या
? एक वर्षकी कीमतमें हम एक घंटा भी लेना चाहें तो नहीं मिल सकता । जिस पूँजीके बटोरनेमें एक वर्ष लगा, उस
पूँजीके बदलेमें एक मिनट और साठ वर्षकी पूँजीसे साठ मिनट लेना चाहें तो नहीं मिल सकते
तो हमारा समय बरबाद हो गया न ?
वैश्य भाई ऐसा व्यापार नहीं करते कि जिसमें पूँजी तो लग जाय और पीछे कौडी एक बचे
नहीं । व्यापारमें तो कुछ-न-कुछ पैदा होना ही चाहिये,
परन्तु इधर साठ वर्षोंकी उम्रमें जितनी पूँजी इकट्ठी की,
उसके बदलेमें साठ महीने मिल जाये साठ दिन मिल जायें तो भी बारहवाँ
अंश तो मिला; परन्तु साठ दिन तो दूर रहे साठ घंटा,
साठ मिनट भी नहीं मिलते और समय हमारा लग गया साठ वर्षका,
तो हम बहुत घाटेमें चले गये । बहुत क्या,
केवल कोरा घाटा-ही-घाटा ।
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