भगवान्पर तो विश्वास करना चाहिये,
पर संसारपर कभी विश्वास नहीं करना चाहिये । देखने, सुनने, समझने आदिमें जो
संसार आता है, वह प्रतिक्षण ही बदल रहा है—यह सबका अनुभव है; अतः उसपर विश्वास कैसे किया जाय ? संसार विश्वासपात्र नहीं है, प्रत्युत सेवापात्र है ।
विश्वासके योग्य तो केवल भगवान् ही हैं, जो कभी बदले नहीं, कभी बदलेंगे नहीं और
कभी बदल सकते नहीं; जो सदा ज्यों-के-त्यों रहते हैं । दूसरे, इस बातपर
विश्वास करना चाहिये कि जब भगवान्ने कृपा करके अपनी प्राप्तिके लिये मानवशरीर
दिया है तो अपनी प्राप्तिकी साधन-सामग्री भी हमें दी है । साधन-सामग्री कम नहीं दी
है, प्रत्युत बहुत अधिक दी है । इतनी अधिक दी है कि उसमें हम कई बार भगवान्की
प्राप्ति कर सकते हैं, जबकि वास्तवमें भगवान्की प्राप्ति एक बार ही होती है और
सदाके लिये होती है ।
साधकको प्रायः
ऐसा प्रतीत होता है कि मेरे पास साधन-सामग्री नहीं है । अतः वह इच्छा करता है कि
कहींसे कोई साधन-सामग्री मिल जाय, कोई कुछ बता दे, कुछ समझा दे आदि-आदि । अर्जुन भी
यही सोचता है कि मेरेमें साधन-सामग्री (दैवी सम्पत्ति) कम है । अतः भगवान् उसको
आश्वासन देते हैं कि तुम्हारेमें दैवी सम्पत्ति कम नहीं है, प्रत्युत स्वतः
स्वाभाविक विद्यमान है, इसलिये तुम चिन्ता मत करो, निराश मत होओ—‘मा शुचः सम्पदं दैविमभिजतोऽसि
पाण्डव’ (गीता १६/५) । भगवान् कल्याण करनेके लिये मनुष्यशरीर
तो दे दें, पर कल्याणकी साधन-सामग्री न दें—ऐसी भूल भगवान्से हो ही नहीं सकती । भगवान्ने अपना कल्याण करनेके लिये विवेक भी दिया है, योग्यता
भी दी है, अधिकार भी दिया है, समय भी दिया है, सामर्थ्य भी दी है । अतः यह विश्वास
करना चाहिये कि भगवान्ने हमें पूरी साधन-सामग्री दी है । अगर हम यह विचार
करते हैं कि हमें भगवान्ने ऐसी योग्यता नहीं दी, इतनी बुद्धि नहीं दी, इतनी
सामग्री नहीं दी, ऐसी सहायता नहीं दी तो हम क्या करें, अपना उद्धार कैसे करें तो
यह हमारी कृतघ्नता है, हमारी भूल है ! क्या सबपर बिना हेतु कृपा करनेवाले भगवान् देनेमें कमी रख
सकते हैं ? कदापि नहीं रखते ।
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