हमारेपर
भगवान्की निरन्तर कृपा हो रही है, पर हम उधर देखते ही नहीं ! हम उस कृपाकी अवज्ञा
करते हैं, निरादर करते हैं, अपमान करते हैं, फिर भी भगवान् अपना कृपालु स्वभाव
नहीं छोड़ते, कृपा करते ही रहते हैं । बालक माँका कोई कम निरादर नहीं करता
। वह कहीं टट्टी फिरता है, कहीं पेशाब कर देता है, कही थूक देता है, पर माँ सदा
उसकी रक्षा करती है । इसी तरह हम भी उलटे चलनेमें बालककी तरह तेज हैं, पर कृपा
करनेमें भगवान् भी माँसे कम तेज नहीं हैं, प्रत्युत ज्यादा तेज हैं ! इसलिये हमें
उनकी कृपाका भरोसा रखना चाहिये ।
विपरीत-से-विपरीत
परिस्थितिमें भी भगवान्की कृपा ज्यों-की-त्यों रहती है । बुखार आ जाय, घाटा लग
जाय, घरमें कोई मर जाय, बीमारी आ जाय, अपयश हो जाय, अपमान हो जाय, उसमें भी भगवान्की
कृपा रहती है । हमें उस कृपापर विश्वास रखना चाहिये ।
लालने ताडने
मातुर्नाकारुण्यं यथार्भके ।
तद्वदेव
महेशस्य नियन्तुर्गुणदोषयोः ॥
‘जिस प्रकार बालकका पालन करने और ताड़ना करने दोनोंमें माँकी कही अकृपा नहीं
होती, उसी प्रकार जीवोंके गुण-दोषोंका नियन्त्रण करनेवाले परमेश्वरकी कहीं किसीपर
अकृपा नहीं होती ।’
इस प्रकार
बिना हेतु कृपा करनेवाले प्रभु कभी विशेष कृपा करके मानवशरीर देते हैं—
कबहुँक करि
करुना नर देही । देत ईस बिनु हेतु सनेही ॥
(मानस,
उत्तर॰४४/३)
संचित पापोंका
अन्त तो आता ही नहीं; क्योंकि हरेक मनुष्यजन्ममें वे होते आये हैं । परन्तु उन
पापोंके रहते हुए भी भगवान् मानवशरीर दे देते हैं, बीचमें ही जीवको अपने कल्याणका
मौका दे देते हैं—यह भगवान्की
एक विशेष कृप है । भगवान्का स्वभाव ही कृपा करनेका है
(बिनु हेतु सनेही) और फिर वे कृपा करके मनुष्यशरीर देते हैं तो यह उनकी दुगुनी
कृपा हुई ! भगवान्की इस अपार कृपापर विश्वास करके साधन किया जाय तो बहुत
विशेषतासे, विलक्षणतासे स्वतःस्वाभाविक पारमार्थिक उन्नति होगी । हम उस
कृपाके सम्मुख नहीं होते हैं तो इससे वह कृपा कम फलीभूत होती है । अगर हम सम्मुख हो
जायँ तो कृपा बहुत फलीभूत होगी । इसलिये भगवान्की स्तुति करते हुए ब्रह्माजी कहते
हैं—
तत्तेऽनुकम्पां सुसमीक्षमाणो
भुञ्जान एवात्मकृतं विपाकम् ।
हृद्वाग्वपुर्भिर्विदधन्नमस्ते
जीवेत यो मुक्तिपदे स दायभाक् ॥
(श्रीमद्भागवत
१०/१४/८)
‘जो अपने किये हुए कर्मोंका फल भोगते हुए प्रतिक्षण आपकी कृपाको ही देखता
रहता है और हृदय, वाणी तथा शरीरसे आपको नमस्कार करता रहता है, वह आपके परमपदका ठीक
वैसे ही अधिकारी हो जाता है, जैसे पिताकी सम्पत्तिका पुत्र !’
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