केवल भगवान्की कृपाकी तरफ देखते रहनेसे मनुष्य
सदाके लिये संसारके दुःखोंसे छूट जाता है । कृपाकी तरफ न देखनेसे वह उस कृपाको ग्रहण नहीं कर सकता, इसीसे वह दुःख पाता
है ! परन्तु भगवान्की कृपा कभी कम नहीं होती । मनुष्य भगवान्के सम्मुख न हो, भगवान्को
माने नहीं, भगवान्का खंडन करे, तो भी भगवान् वैसी ही कृपा करते हैं । पूत कपूत हो जाता है, पर माता कुमाता नहीं होती—‘कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति ।’ भगवान् तो सदासे अनन्त माताओंकी भी माता हैं, अनन्त
पिताओंके भी पिता हैं । इसलिये हमारेपर भगवान्की
स्वतः अपार, असीम कृपा है । जो कुछ हो रहा है,
उनकी कृपासे ही हो रहा है । जो कुछ मिल रहा है, उनकी कृपासे ही मिल रहा है । जब
कोई अच्छा संग मिल जाय, अच्छी बात मिल जाय, अच्छा भाव पैदा हो जाय, अचानक भगवान्की
याद आ जाय, तब समझना चाहिये कि यह भगवान्की विशेष कृपा हुई है, भगवान्ने मेरेको
विशेषतासे याद किया है । इस प्रकार भगवान्की कृपाकी तरफ देखे, उसका ही
भरोसा रखे तो उनकी कृपा बहुत विशेषतासे प्रकट होगी ।
एक बालक घरमें सो रहा था । उसकी माँ जल भरनेके लिये कुएँ चली गयी । माँके
जानेके बाद बालककी नींद खुल गयी । उसने देखा कि माँ घड़ेमें पानी लेकर आ रही है तो
वह माँकी तरफ चल पड़ा । बाहर तेज धूप पड़ रही थी । धूपसे तपी जमीनपर बालकके कोमल-कोमल
पैर जल रहे थे, पर उसको इस बातका होश नहीं था कि मैं यहीं ठहर जाऊँ, माँ तो यहाँ आ
ही रही है । वह माँके पास पहुँच गया । माँके सिरपर घड़ा था; अतः वह झुककर उसको कैसे
उठाये ? इसलिये माँने उससे कहा कि तू अपना हाथ थोड़ा-सा ऊँचा कर दे । परन्तु बालकने
हाथ ऊँचा नहीं किया, उलटे नीचे लेट गया और कहने लगा कि तू मेरेको छोड़कर क्यों चली
गयी ? अब गरम जमीनसे उसका शरीर जलता है और वह रोता है । माँ कहती है कि तू थोड़ा
ऊँचा हाथ कर दे, पर वह उसकी बात सुनता ही नहीं ! माँ बेचारी घड़ा लेकर घर आती है और
बालक भी उठकर उसके पीछे-पीछे दौड़ता है । अगर वह थोड़ा-सा ऊँचा हाथ कर ले तो उसमें
क्या नुकसान होता है ? क्या अपमान होता है ? क्या बेइज्जती होती है ? क्या परिश्रम
होता है ? किस योग्यताकी जरूरत होती है ? इसी तरह भगवान्
हमें गोदमें लेनेके लिये तैयार खड़े हैं, केवल हमें थोड़ा-सा ऊँचा हाथ करना है
अर्थात् भगवान्के सम्मुख होना है—
सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं ।
जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं ॥
(मानस,
सुन्दरकाण्ड ४४/१)
हमें भगवान्की कृपाकी तरफ देखना है और ‘हे मेरे नाथ ! हे मेरे नाथ !!’
कहकर भगवान्को पुकारना है । पुकारनेमात्रसे भगवान् कल्याण कर देते हैं । वे पहले किये गये पापोंकी तरफ
देखते ही नहीं कि इसने कितने पाप किये हैं, कितना अन्याय किया है, कितना मेरे
विरुद्ध चला है—
जान अवगुन प्रभु मान न काऊ । दीन बंधु
अति मृदुल सुभाऊ ॥
(मानस, उत्तरकाण्ड १/३)
रहति न प्रभु चित चूक किये की । करत
सुरति सय बार हिए की ॥
(मानस, बालकाण्ड २९/३)
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