जहाँ अपनी विजय निश्चित हो, वहाँ मनुष्यको
अपनेमें कायरता नहीं लानी चाहिये । सांसारिक कार्योंमें तो सिद्धि और असिद्धि दोनों होते हैं, इसलिये भगवान्
उनमें सम, निर्विकार रहनेकी आज्ञा दी है—‘सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा’ (गीता २/४८),
‘समः सिद्धावसिद्धौ च’ (गीता ४/२२), सिद्ध्यसिद्ध्योर्निर्विकारः (गीता १८/२६) । परन्तु परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिमें तो सिद्धि ही होती
है । सांसारिक सिद्धि-असिद्धिमें सम रहनेकी बात भी
वास्तविक सिद्धि (परमात्मप्राप्ति) के लिये ही है; क्योंकि सांसारिक सिद्धि-असिद्धिका
कोई मूल्य नहीं है । सांसारिक सिद्धि अनिश्चित है; क्योंकि उसमें परतन्त्रता है,
पर पारमार्थिक सिद्धि
निश्चित है; क्योंकि उसमें स्वतन्त्रता है और उसीके लिये मनुष्य-शरीर मिला है । अतः साधकको परमात्मतत्त्वकी
प्राप्तिके लिये अपनेमें कायरता नहीं लानी चाहिये, हताश नहीं होना चाहिये,
प्रत्युत इसके लिये मनमें
नित्य नया उत्साह रखना चाहिये ।
बालक माँपर अपना अधिकार मानता है कि मेरी माँ है । यदि
माँके पाँच-दस बालक हों तो भी प्रत्येक बालक पूरी-की-पूरी माँको अपनी मानता है ।
ऐसा नहीं होता कि दस बालक हैं तो माँके भी दस हिस्से होंगे और प्रत्येक बालक माँके
दसवें हिस्सेको अपना मानेगा । इसी तरह भगवान् प्रत्येक जीवके लिये पूरे-के-पूरे
अपने हैं । माँ तो फिर भी पक्षपात कर सकती है, पर हम सब जिनकी वास्तविक सन्तान
हैं, उन भगवान्में पक्षपात नहीं है । वे भगवान् ही
हमारे असली माता-पिता हैं ।
त्वमेव माता च पिता त्वमेव
त्वमेव
बन्धुश्च सखा त्वमेव ।
त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव
त्वमेव सर्वं मम देवदेव ॥
‘आप ही माता हैं, आप ही पिता हैं, आप ही
सम्बन्धी हैं, आप ही मित्र हैं, आप ही विद्या हैं, आप ही धन हैं; हे देवदेव ! आप
ही मेरे सब कुछ हैं ।’
सो अनन्य जाकें असि मति न टरइ हनुमंत ।
मैं सेवक सचराचर रूप
स्वामी भगवंत ॥
(मानस,
किष्किन्धाकाण्ड ३)
देवता, मनुष्य, पशु-पक्षी, कीट-पतंग, लता-वृक्ष,
पहाड़ आदि जो कुछ भी है, सब रूपोंमें हमारे प्रभु ही हैं । इस बातको जिन लोगोंनें पहचान लिया, उनपर संसारका असर नहीं
हुआ । प्रह्लाद, मीराबाई आदिने इसको पहचाना था, इसलिये बड़े-से-बड़ा दुःख
आनेपर भी वे विचलित नहीं हुए, क्योंकि वे सबमें, सब जगह अपने इष्टको ही देखते थे । वे परमात्मा ही हमारे वास्तविक माता-पिता
हैं । शरीर तो
लौकिक माता-पिताका अंश है, जो मर जाता है । परन्तु जीव स्वयं परमात्माका अंश है जो
कभी मरा नहीं, मरेगा नहीं और मर सकता ही नहीं । इसलिये
किसी भी भाई-बहिनको अपनेमें ऐसी कायरताका भाव नहीं लाना चाहिये कि मेरेपर भगवान्की
कृपा कम है अथवा मेरा आचरण ठीक नहीं है, मेरा भाव ठीक नहीं है, मेरेमें भक्ति नही
है, मेरेमें ज्ञान नहीं है, मेरेमें परमात्मप्राप्तिकी योग्यता नहीं है, मेरेमें
बल नहीं है, इसलिये मेरेको परमात्माकी प्राप्ति नहीं हो सकती । कारण कि हमारी
योग्यता अयोग्यपर काम करती है, हमारा बल निर्बलपर काम करता है, हमारी विद्या
मूर्खपर काम करती है । इसलिये हम हम अपनेमें बल, बुद्धि, विद्या, योग्यता, कुल,
धर्म, जाति, वर्ण, आश्रम आदि जो कुछ भी मानते हैं, वे सब परमात्मप्राप्तिके लिये
कुछ कामके नहीं हैं । ‘भगवान् मेरे हैं’—यह भाव
जितना बलवान् है, उतने ये बल, बुद्धि, विद्या आदि बलवान् नहीं हैं । ज्ञानियोंका ज्ञान भी इतना बलवान् नहीं है ।
ज्ञान (विवेक) उतनी रक्षा नहीं करता, जितनी भगवान् रक्षा करते हैं !
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