बहुतसे लोग कह देते हैं—‘तुम नाम-जपते हो तो मन लगता है कि नहीं लगता है ? अगर मन नहीं लगता है तो
कुछ नहीं, तुम्हारे कुछ फायदा नहीं—ऐसा कहनेवाले वे भाई भोले हैं, वे भूलमें हैं, इस
बातको जानते ही नहीं; क्योंकि उन्होंने कभी नाम-जप करके देखा ही नहीं । पहले मन लगेगा, पीछे जप करेंगे—ऐसा कभी हुआ है ? और होगा कभी ? ऐसी सम्भावना है क्या ?
पहले मन लग जाय और पीछे ‘राम-राम’ करेंगे—ऐसा नहीं होता । नाम जपते-जपते ही नाम-महाराजकी
कृपासे मन लग जाता है ‘हरिसे लागा रहो भाई । तेरी
बिगड़ी बात बन जाई, रामजीसे लागा रहो भाई ॥’ इसलिये नाम-महाराजकी शरण लेनी
चाहिये । जीभसे ही ‘राम-राम’ शुरू कर दो, मनकी परवाह मत करो । ‘परवाह मत करो’—इसका अर्थ यह नहीं है कि मन मत लगाओ । इसका अर्थ
यह है कि हमारा मन नहीं लगा, इससे घबराओ मत कि हमारा जप नहीं हुआ । यह बात नहीं है
। जप तो हो ही गया, अपने तो जपते जाओ । हमने सुना है—
माला तो करमें फिरे, जीभ फिरे मुख माहिं
।
मनावाँ तो चहुँ दिसि फिरे, यह तो सुमिरन नाहिं ॥
‘भजन होगा नहीं’—यह कहाँ लिखा है ? यहाँ तो ‘सुमिरन
नाहिं’—ऐसा लिखा
है । सुमिरन नहीं होगा, यह बात तो ठीक है; क्योंकि ‘मनवा
तो चहुँ दिसि फिरे’ मन संसारमें घूमता है तो सुमिरन कैसे होगा ? सुमिरन
मनसे होता है; परन्तु ‘यह तो जप नाहिं’—ऐसा कहाँ लिखा है ? जप तो हो ही गया । जीभमात्रसे भी अगर हो गया तो नाम-जप तो हो ही गया ।
हमें एक सन्त मिले थे । वे कहते थे कि परमात्माके साथ आप किसी तरहसे ही अपना
सम्बन्ध जोड़ लो । ज्ञानपूर्वक जोड़ लो, और मन-बुद्धिपूर्वक जोड़ लो तब तो कहना ही
क्या है ? और नहीं तो जीभसे ही जोड़ लो । केवल ‘राम’ नामका उच्चारण करके भी सम्बन्ध जोड़ लो । फिर सब काम ठीक हो जायगा । ‘अनिच्छया
ही संस्पृष्टो दहत्येव हि पावकः’—आग बिना मनके छू जायेंगे तो भी वह जलायेगी ही, ऐसे ही भगवान्का नाम किसी
तरहसे ही लिया जाय—
भाय कुभाय अनख आलसहूँ ।
नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ ॥
(मानस,
बालकाण्ड २८/१)
इसका अर्थ उलटा नहीं लेना चाहिये कि हम कुभावसे ही नाम लें
और मन लगावें ही नहीं । बेगारखाते ऐसे ही नाम लें—ऐसा नहीं । मन लगानेका उद्योग
करो, सावधानी रखो, मनको भगवान्में लगाओ, भगवान्का चिन्तन करो, पर न हो सके तो
घबराना बिलकुल नहीं चाहिये । मेरे कहनेका मतलब यह है कि मन नहीं लग सका तो ऐसा मत
मानो कि हमारा नाम-जप निरर्थक चला गया । अभी मन न लगे तो परवाह मत करो; क्योंकि
आपकी नीयत जब मन लगानेकी है तो मन लग जायगा । एक तो हम मन लगाते ही नहीं और
एक मन लगता नहीं—इन दोनों
अवस्थओंमें बड़ा अन्तर है । ऐसे दिखनेमें तो दोनोंकी एक-सी अवस्था ही दीखती है ।
कारण कि दोनों अवस्थओंमें ही मन तो नहीं लगा । दोनोंकी यह अवस्था बराबर रही;
परन्तु बराबर होनेपर भी बड़ा भारी अन्तर है । जो लगाता ही नहीं, उसका तो उद्योग भी
नहीं है । उसका मन लगानेका विचार ही नहीं है । दूसरा व्यक्ति मनको भगवान्में
लगाना चाहता है, पर लगता नहीं । भगवान् सबके हृदयकी बात देखते हैं—
रहति न प्रभु चित
चूक किए की । करत सुरति सय बार हिए की ॥
(मानस,
बालकाण्ड २९/५)
भगवान् हृदयकी बात देखते हैं, कि यह मन लगाना
चाहता है, पर मन नहीं लगा । तो महाराज ! उसका बड़ा भारी पुण्य होगा । भगवान्पर उसका बड़ा असर पड़ेगा । वे सबकी नीयत देखते हैं ।
अपने तो मन लगानेका प्रयत्न करो, पर न लगे तो उसमें घबराओ मत और नाम लिये जाओ ।
|