।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
चैत्र कृष्ण द्वादशी, वि.सं. २०७५ मंगलवार
शरणागतिका रहस्य
        


एक कुलटा स्त्री थी । उसको किसी पुरुषसे संकेत मिला कि इस समय अमुक स्थानपर तुम आ जाना । तो वह समयपर अपने प्रेमीके पास जा रही थी । रास्तेमें एक मस्जिद पड़ती थी । मस्जिदकी दीवारें छोटी-छोटी थी । दीवारके पास ही वहाँका मौलवी झुककर नमाज पढ़ रहा था । वह कुलटा अनजानेमें उसके ऊपर पैर रखकर निकल गयी । मौलवीको बड़ा गुस्सा आया कि कैसी औरत है यह ! इसने मेरेपर जूतीसहित पैर रखकर हमको नापाक (अशुद्ध) बना दिया ! वह वहीं बैठकर उसको देखता रहा कि कब आयेगी । जब वह कुलटा पीछे लौटकर आयी तो मौलवीने उसको धमकाया कि ‘कैसी बेअक्ल हो तुम ! हम परवरदिगारकी बंदगीमें बैठे थे, नमाज पढ़ रहे थे और तुम हमारेपर पैर रखकर चली गयी ।’ तब वह बोली

मैं नर-राची ना लखी, तुम कस लख्यो सुजान ।
पढ़ि कुरान बौरा भया,  राच्यो  नहिं  रहमान ॥

एक पुरुषके ध्यानमें रहनेके कारण मेरेको इसका पता नहीं लगा कि सामने दीवार है या कोई मनुष्य है, पर तू तो भगवान्‌के ध्यानमें था, फिर तुने मेरेको कैसे पहचान लिया कि वह यही थी ? तू केवल कुरान पढ़-पढ़कर बावला हो गया है । अगर तू भगवान्‌के ध्यानमें रचा हुआ होता तो मुझे पहचान लेता ? कौन आया, कैसे आया, मनुष्य था कि पशु-पक्षी था, क्या था, क्या नहीं था, कौन ऊपर आया, कौन नीचे आया, किसने पैर रखाइधर तेरा खयाल ही क्यों जाता ? तात्पर्य है कि एक भगवान्‌को छोड़कर किसीकी तरफ ध्यान ही कैसे  जाय ? दूसरी बातोंका पता ही कैसे लागे ? जबतक दूसरी बातोंका पता लगता है तबतक वह शरण कहाँ हुआ ?


कौरव-पाण्डव जब लड़के थे तो वे अस्त्र-शस्त्र सीख रहे थे । सिखाकर तैयार हो गये तो उनकी परीक्षा ली गयी । एक वृक्षपर एक बनावटी चिड़िया बैठा दी गयी और सबसे कहा गया कि उस चिड़ियाके कंठपर तीर मारकर दिखाओ । एक-एक करके सभी आने लागे । गुरूजी पहले सबसे अलग-अलग पूछते कि बताओ तुम्हें वहाँ क्या दीख रहा है ? तो कोई कहता कि हमें तो वृक्ष दीख रहा है; कोई कहता कि हमें तो टहनी दीखती है; कोई कहता कि हमें तो चिड़िया दीखती है, चोंच भी दीखती है, पंख भी दीखते हैं । ऐसा कहनेवालोंको वहाँसे हटा दिया गया । जब अर्जुनकी बारी आयी तो उनसे पूछा गया कि तुमको क्या दीखता है तो अर्जुनने कहा कि मेरेको तो केवल कंठ ही दीखता है और कुछ भी नहीं दीखता । तब अर्जुनसे बाण मारनेके लिये कहा गया । अर्जुनने अपने बाणसे उस चिड़ियाका कंठ बेध दिया क्योंकि उसकी लक्ष्यपर दृष्टि ठीक थी । अगर चिड़िया दीखती है, वृक्ष, टहनी आदि दीखते हैं तो लक्ष्य कहाँ सँधा है ? अभी तो दृष्टि फैली हुई है । लक्ष्य होनेपर तो वही दीखेगा, जो लक्ष्य होगा । लक्ष्यके सिवाय दूसरा कुछ दीखेगा ही नहीं । इसी प्रकार जबतक मनुष्यका लक्ष्य एक नहीं हुआ है, तबतक वह अनन्य कैसे हुआ ? अव्यभिचारी ‘अनन्ययोग’ होना चाहिये‘मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी’ (गीता १३/१०) । ‘अन्ययोग’ नहीं होना चाहिये अर्थात् शरीर, मन, बुद्धि, अहं आदिकी सहायता नहीं होनी चाहिये । वहाँ तो केवल एक भगवान्‌ ही होने चाहिये ।