मनुष्य चाहे तो अपनी आयु दूसरेको भी दे सकता है
। परन्तु यह अधिकार उसी मनुष्यको है, जिसने
परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति कर ली है । जैसे अपनी सम्पत्ति देनेका अधिकार बालिगको ही होता है,
नाबालिगको नहीं होता, ऐसे ही अपनी आयु देनेका
अधिकार तत्त्वज्ञान होनेपर ही होता है । जबतक तत्त्वज्ञान,
परमात्मप्राप्ति, जीवन्मुक्ति न हो, तबतक मनुष्य नाबालिग है और वह अपनी आयु
दूसरेको नहीं दे सकता । कारण कि भगवान्ने अपना कल्याण
करनेके लिये आयु दी है, इसलिये उसको अपने तथा दूसरोंके कल्याणमें ही लगाना चाहिये
। उसको नष्ट नहीं करना चाहिये ।
राजस्थानमें एक संत थे । वे और उनकी माँ‒दोनों ही
तत्त्वज्ञानी थे । जब उनका अन्तसमय नजदीक आया, तब उनकी माँने अपनी आधी उम्र उनको
दे दी, जिससे वे पुनः जी उठे । बादमें वे मरे तो माँ और बेटा दोनों एक साथ ही मरे
! इसलिये जिसको परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति हो गयी है, ऐसा समर्थ व्यक्ति ही अपनी
आयु दूसरेको दे सकता है । परन्तु ऐसा तभी होता है, जब आयु देनेवालेकी, लेनेवालेकी
और भगवान्की‒तीनोंकी मरजी हो । एककी मरजीसे कुछ नहीं होता ।
दधीचि ऋषिने देवताओंके हितके लिये अपने प्राण छोड़ दिए, पर उनको पाप नहीं लगा;
क्योंकि वे समर्थ थे । रामायणमें आया है‒
समरथ कहुँ दोषु गोसाईं
।
रबि पावक सुरसरि की नाईं ॥
(मानस, बालकाण्ड ६९/४)
पृथ्वीपर जो मल-मूत्र आदि अशुद्ध वस्तुएँ रहती हैं, उनको भी
अपनी किरणोंसे खींचकर सूर्य उनको शुद्ध बना देता है, इसलिये सूर्य समर्थ है ।
चन्दन हो या मुर्दा हो, अग्नि सबको जलाकर शुद्ध कर देती है, इसलिये अग्नि समर्थ है
। गंगामें नालीका अशुद्ध जल मिल जाय तो वह उसको भी शुद्ध बना देती है, इसलिये गंगा
समर्थ है । अतः ‘समर्थ’ नाम
उसका है, जो असमर्थको समर्थ कर दे, अशुद्धको शुद्ध कर दे, अपवित्रको पवित्र कर दे
और स्वयं ज्यों-का-त्यों शुद्ध, पवित्र रहे । जो दूसरेको असमर्थ बनाता है,
वह तो राक्षस, असुर होता है । जिसके पास धन ज्यादा है, वह भी समर्थ नहीं है । वह
तो बेचारा धनका गुलाम है, दयाका पात्र है । ऐसे ही जिसके पास ज्यादा बल है अथवा
ऊँचा पद है, वह भी समर्थ नहीं है; क्योंकि वह बल, पद, अधिकार आदिका गुलाम है ।
उसमें जो समर्थता दीखती है, वह उसकी खुदकी नहीं है, प्रत्युत उसको मिले हुए धन, पद, अधिकार, बल, राज्य आदिकी है, जो कि बिछुड़नेवाले
हैं । आगन्तुक
वस्तुओंसे अपनेको समर्थ मान लेना बेईमानी है ।
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