।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ कृष्ण प्रतिपदा, वि.सं. २०७६ मंगलवार
   आकस्मिक और अकाल मृत्यु
        

कोई स्त्री सती होती है तो उसको आत्महत्याका पाप नहीं लगता; क्योंकि यह आत्महत्या है ही नहीं । सती होनेवाली स्त्री जान-बूझकर नहीं जलती । वह अपनी आयुका नाश नहीं करती, प्रत्युत त्याग करती है । सती होना कोई साधारण बात नहीं है । जिसके भीतर ‘सत्’ आ जाता है, वह आगके बिना भी जल जाती है और जलते समय उसको कोई कष्ट भी नहीं होता । वर्तमान समयकी एक सत्य घटना है । हरदोई जिलेमें इकनोरा गाँव है । वहाँ एक लड़की अपने मामाके घरपर थी । उसका पति मर गया । उस लड़कीको जब पतिकी मृत्युका समाचार मिला तो उसने मामासे कहा कि मेरेको जल्दी पतिके पास पहुँचा दो । मामाने कहा कि कैसे पहुँचाऊँ ? शरीर तो अब जल गया होगा । उसने कहा कि मैं सती होऊँगी । मामाने मना किया तो उसने अपनी अँगुली दीयेपर रखी । वह अँगुली मोमबत्तीकी तरह जलने लगी । वह बोली कि अगर आप मेरेको सती होनेसे रोकेंगे तो आपका सब घर जल जायगा । मामा डर गया । उस लड़कीने दीवारपर अपनी जलती हुई अँगुलीको बुझाया और घरसे बाहर निकलकर पीपलके नीचे खड़ी हो गयी । उसने लकड़ी माँगी तो किसीने दी नहीं । उसने सूर्यसे प्रार्थना की कि ये मेरेको लकड़ी नहीं देते हैं, आप ही कृपा करके मेरेको अग्नि दो । ऐसा कहते ही उसके शरीरमें अपने-आप आग लग गयी और वह वहीं जल गयी । गाँवके लोगोंने यह सब अपनी आँखोंसे देखा । करपात्रीजी महाराज भी वहाँ गये थे और उन्होंने दीवारपर पड़ी वे काली लकीरें देखीं, जो जलती हुई अँगुली बुझानेसे खिंच गयी थीं, और पीपलके जले हुए पत्ते भी देखे । गीताप्रेसके ‘कल्याण’‒विभागसे भी एक आदमी वहाँ गया था और उसने इस घटनाको सत्य पाया । उसने वहाँके मुसलमानोंसे पूछा तो उन्होंने भी कहा कि यह सब घटना हमारे सामने घटी है ।

राजस्थानके दूधोर गाँवकी एक ठकुरानी थी । जब उसके पतिका शरीर शान्त हुआ तो उसको सत् चढ़ गया । उस समय अंग्रेजोंका शासन था । अतः अंग्रेजोंके भयसे वहाँके लोगोंने कह दिया कि हम सती नहीं होने देंगे । पर उसने स्नान करके श्रृंगार करना शुरू कर दिया । लोगोंने दरवाजा बन्द कर दिया । राजपूतोंके घरोंके दरवाजे भीतरसे बन्द हुआ करते थे, बाहरसे नहीं । इसलिये दोनों किवाडोंकी जो कड़ियाँ थीं, उसमें साँकल डाल दी गयी और उस साँकलको पकड़कर तथा दरवाजेपर पैर देकर दो आदमी खड़े हो गये । उधर वह अच्छी तरहसे श्रृंगार करके आयी और भीतरसे दरवाजेको झटका दिया तो आदमीसहित वह दरवाजा नीचे आ पड़ा ! वह बाहर निकल गयी । रास्तेमें जितने मन्दिर थे, उनको नमस्कार करती हुई वह श्मशान-भूमि पहुँची । वहाँ उसके पतिका शव जल रहा था । वहाँ खड़े आदमियोंने उसको आते देखा तो जैसे कबूतरको पकड़ते हैं, ऐसे ऊपरसे बड़ा कपड़ा डालकर पकड़कर उठा लिया और घर ले आये । घरके भीतर मन्दिरमें वह दस दिनतक रही । बादमें उसने मेरेसे भागवत-सप्ताह-कथा सुनी । उस समय मेरेको उसने बताया कि दस दिनतक मेरे पास एक प्रकाश रहा । फिर धीरे-धीरे वह प्रकाश ऊपरकी और चला गया ।

तात्पर्य है कि सती जान-बूझकर नहीं होती । जब उसको सत् चड़ता है, तब वह सती होती है । उस समय वह जो बात कह देती है, शाप या वरदान दे देती है, वह सत्य होता है । अब समय बहुत गिर गया है, इसलिये आजकलके लोग इन बातोंको समझते नहीं । अगर किसानसे कोई कह दे कि तुम हवाई जहाज बनाओ तो वह कैसे बना देगा ? इसी तरह जो संसारमें रचे-पचे हैं, वे बेचारे धार्मिक और पारमार्थिक बातोंको क्या समझें ? ‘मायाको मजूर बंदो कहा जाने बंदगी !’

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!


‒ ‘सत्संग मुक्ताहार’ पुस्तकसे