।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं. २०७६ सोमवार
गुरु बननेका अधिकार किसको ?
        

भगवान्‌का अंश होनेके कारण मनुष्यमात्रका सदासे ही भगवान्‌के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है । यह सम्बन्ध स्वतः-स्वाभाविक है, बनावटी नहीं है । परन्तु गुरुके साथ जोड़ा गया सम्बन्ध बनावटी होता है । बनावटी सम्बन्धसे कल्याण नहीं होता, प्रत्युत बन्धन होता है; क्योंकि संसारके बनावटी सम्बन्धसे ही हम बँधे हैं । आप विचार करें, जिन लोगोंने गुरु बनाया है, क्या उन सबका कल्याण हो गया ? उनको तत्त्वज्ञान हो गया ? भगवान्‌की प्राप्ति हो गयी ? जीवन्मुक्ति हो गयी ? किसीको हो गयी हो तो बड़े आनन्दकी बात है, पर हमें विश्वास नहीं होता । एक तो वे  लोग हैं, जिन्होंने गुरु बनाया है और दूसरे वे लोग हैं, जिन्होंने गुरु नहीं बनाया है, पर सत्संग करते हैं‒उन दोनोंमें आपको क्या फर्क दिखता है ? विचार करें कि गुरु बनानेसे ज्यादा लाभ होता है अथवा सत्संग करनेसे ज्यादा लाभ होता है ? गुरुजी हमारा कल्याण कर देंगे‒ऐसा भाव होनेसे अपने साधनमें ढिलाई आ जाती है । इसलिये गुरु बनानेवालोंमें जितने राग-द्वेष पाये जाते हैं, उतना सत्संग करनेवालोंमें नहीं पाये जाते । किसीको अच्छा संग भी मिल जाय तो वह किसीके साथ लड़ाई-झगड़ा, मार-पीट नहीं करता, पर अपनेको किसी गुरुका चेला माननेवाले दूसरे गुरुके चेलोंके साथ मार-पीट भी कर देते हैं । गुरु बनानेवालोंमें कोई विशेष परिवर्तन नहीं दीखता । केवल एक वहम पड़ जाता है कि हमने गुरु बना लिया, इसके सिवाय और कुछ नहीं होता । इसलिये गुरु बनानेसे मुक्ति हो जाती है‒यह नियम है ही नहीं ।

गुरु बनना और बनाना बड़े जोखिमकी बात है, कोई तमाशा नहीं है । कोई आदमी कपड़ेकी दूकानपर जाय और दूकानदारसे कहे कि मेरेको अमुक कपड़ा चाहिये । दूकानदार उससे कपड़ेका मूल्य तो ले ले, पर कपड़ा नहीं दे तो क्या यह उचित है ? अगर कपड़ा नहीं दे सकते थे तो मूल्य क्यों लिया ? और मूल्य लिया तो कपड़ा क्यों नहीं दिया ? ऐसे ही शिष्य तो बना ले, भेंट-पूजा ले ले और उद्धार करे नहीं तो क्या यह उचित है ? पहले चेला बन जाओ, उद्धार पीछे करेंगे‒यह ठगाई है । अपना पूजन करावा लिया, भेंट ले ली, चेला बना लिया और भगवत्प्राप्ति नहीं करायी तो फिर आप गुरु क्यों बनें ? गुरु बने हो तो भगवत्प्राप्ति कराओ और नहीं कराओ तो आपको गुरु बननेका कोई अधिकार नहीं है । अगर चेलेका कल्याण नहीं कर सकते तो फिर उसको दूसरी जगह जाने दो । खुद कल्याण नहीं कर सकते तो फिर उसको रोकानेका क्या अधिकार है ? खुद कल्याण करते नहीं और दूसरी जगह जाने देते नहीं तो बेचारे शिष्यका तो नाश कर दिया ! उसका मनुष्यजन्म निरर्थक कर दिया ! अब वह अपना कल्याण कैसे करेगा ? इसलिये जहाँतक बने, गुरु-शिष्यका सम्बन्ध बिना जोड़े सन्तकी बात मानोगे तो लाभ होगा और नहीं मानोगे तो नुकसान नहीं होगा । तात्पर्य है कि गुरु-शिष्यका सम्बन्ध न जोड़नेमें लाभ-ही-लाभ है, नुकसान नहीं है । परन्तु गुरु-शिष्यका सम्बन्ध जोड़ोगे तो बात नहीं माननेपर नुकसान होगा । कारण कि अगर गुरु असली हो और उसकी एक बात भी टाल दे, उनकी आज्ञा न माने तो वह गुरुका अपराध होता है, जिसको भगवान्‌ भी माफ नहीं कर सकते !

शिवक्रोधाद् गुरुस्त्राता गुरुक्रोधाच्छिवो न हि ।
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन    गुरोराज्ञां    न   लंघयेत ॥
                                                   (गुरुगीता)

‘भगवान्‌ शंकरके क्रोधसे तो गुरु रक्षा कर सकता है, पर गुरुके क्रोधसे भगवान्‌ शंकर भी रक्षा नहीं कर सकते । इसलिये सब प्रकारसे प्रयत्नपूर्वक गुरुकी आज्ञाका उल्लंघन न करे ।’

राखइ  गुरु  जो   कोप  बिधाता ।
गुरु बिरोध नहिं कोउ जग त्राता ॥
                                  (मानस, बाल १६६/३)


नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!