भगवान्का अंश होनेके कारण मनुष्यमात्रका सदासे ही भगवान्के
साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है । यह सम्बन्ध स्वतः-स्वाभाविक है, बनावटी नहीं है । परन्तु
गुरुके साथ जोड़ा गया सम्बन्ध बनावटी होता है । बनावटी सम्बन्धसे कल्याण नहीं होता,
प्रत्युत बन्धन होता है; क्योंकि संसारके
बनावटी सम्बन्धसे ही हम बँधे हैं । आप विचार
करें, जिन लोगोंने गुरु बनाया है, क्या उन सबका कल्याण हो गया ? उनको तत्त्वज्ञान
हो गया ? भगवान्की प्राप्ति हो गयी ? जीवन्मुक्ति हो गयी ? किसीको हो गयी
हो तो बड़े आनन्दकी बात है, पर हमें विश्वास नहीं होता । एक तो वे लोग हैं, जिन्होंने गुरु बनाया है और दूसरे वे
लोग हैं, जिन्होंने गुरु नहीं बनाया है, पर सत्संग करते हैं‒उन दोनोंमें आपको क्या
फर्क दिखता है ? विचार करें कि गुरु बनानेसे ज्यादा लाभ होता है अथवा सत्संग
करनेसे ज्यादा लाभ होता है ? गुरुजी हमारा कल्याण कर देंगे‒ऐसा भाव होनेसे अपने
साधनमें ढिलाई आ जाती है । इसलिये गुरु बनानेवालोंमें जितने राग-द्वेष पाये जाते
हैं, उतना सत्संग करनेवालोंमें नहीं पाये जाते । किसीको अच्छा संग भी मिल जाय तो
वह किसीके साथ लड़ाई-झगड़ा, मार-पीट नहीं करता, पर अपनेको
किसी गुरुका चेला माननेवाले दूसरे गुरुके चेलोंके साथ मार-पीट भी कर देते हैं ।
गुरु बनानेवालोंमें कोई विशेष परिवर्तन नहीं दीखता । केवल एक वहम पड़ जाता है कि
हमने गुरु बना लिया, इसके सिवाय और कुछ नहीं होता । इसलिये गुरु बनानेसे मुक्ति हो
जाती है‒यह नियम है ही नहीं ।
गुरु बनना और बनाना बड़े जोखिमकी बात है, कोई
तमाशा नहीं है । कोई आदमी
कपड़ेकी दूकानपर जाय और दूकानदारसे कहे कि मेरेको अमुक कपड़ा चाहिये । दूकानदार उससे
कपड़ेका मूल्य तो ले ले, पर कपड़ा नहीं दे तो क्या यह उचित है ? अगर कपड़ा नहीं दे
सकते थे तो मूल्य क्यों लिया ? और मूल्य लिया तो कपड़ा क्यों नहीं दिया ? ऐसे ही
शिष्य तो बना ले, भेंट-पूजा ले ले और उद्धार करे नहीं तो क्या यह उचित है ? पहले चेला बन
जाओ, उद्धार पीछे करेंगे‒यह ठगाई है । अपना पूजन करावा लिया, भेंट ले ली,
चेला बना लिया और भगवत्प्राप्ति नहीं करायी तो फिर आप गुरु क्यों बनें ? गुरु बने
हो तो भगवत्प्राप्ति कराओ और नहीं कराओ तो आपको गुरु बननेका कोई अधिकार नहीं है ।
अगर चेलेका कल्याण नहीं कर सकते तो फिर उसको दूसरी जगह जाने दो । खुद कल्याण नहीं
कर सकते तो फिर उसको रोकानेका क्या अधिकार है ? खुद कल्याण करते नहीं और दूसरी जगह
जाने देते नहीं तो बेचारे शिष्यका तो नाश कर दिया ! उसका
मनुष्यजन्म निरर्थक कर दिया ! अब वह अपना कल्याण कैसे करेगा ?
इसलिये जहाँतक बने, गुरु-शिष्यका सम्बन्ध बिना जोड़े सन्तकी बात मानोगे तो लाभ होगा
और नहीं मानोगे तो नुकसान नहीं होगा । तात्पर्य है कि गुरु-शिष्यका सम्बन्ध न
जोड़नेमें लाभ-ही-लाभ है, नुकसान नहीं है । परन्तु गुरु-शिष्यका सम्बन्ध जोड़ोगे तो
बात नहीं माननेपर नुकसान होगा । कारण कि अगर गुरु असली हो और उसकी एक बात भी टाल
दे, उनकी आज्ञा न माने तो वह गुरुका अपराध होता है, जिसको भगवान् भी माफ नहीं कर
सकते !
शिवक्रोधाद् गुरुस्त्राता गुरुक्रोधाच्छिवो न हि ।
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन
गुरोराज्ञां न लंघयेत ॥
(गुरुगीता)
‘भगवान् शंकरके क्रोधसे तो गुरु रक्षा कर
सकता है, पर गुरुके क्रोधसे भगवान् शंकर भी रक्षा नहीं कर सकते । इसलिये सब
प्रकारसे प्रयत्नपूर्वक गुरुकी आज्ञाका उल्लंघन न करे ।’
राखइ गुरु जो कोप
बिधाता ।
गुरु बिरोध नहिं कोउ जग त्राता ॥
(मानस, बाल॰ १६६/३)
नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
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