।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ अमावस्या, वि.सं. २०७६ मंगलवार
भौमवती अमावस्या
       कर्मचारियोंके तथा उद्योग- 
           संचालकोंके कर्तव्य
        

प्रश्न‒कर्मचारी-संघ यानी यूनियन कब और क्यों बनते हैं ?

उत्तर‒जिस संस्थामें कर्मचारी काम करते हैं, उसके मालिकोंका जब स्वार्थपूर्ण व्यवहार होने लगता है, वे उनपर अभिमानवश अनुचित शासन करते हुए उनको नीची दृष्टिसे देखकर उनके साथ असत् एवं अनुचित व्यवहार करने लगते हैं, तब कर्मचारियोंके मनमें द्वेष एवं प्रतिहिंसाकी भावना जाग्रत होती है, साथ-ही-साथ उनके मनमें अपनी स्वार्थसिद्धिका विफल भ्रम भी पैदा हो जाता है । वे लोभके कारण अपने लाभका स्वप्न देखने लगते हैं । तब वे ‘संघे शक्तिः कलौ युगे’ की नीति अपनाते हैं और प्रतिहिंसाकी भावनासे मालिकोंको दबानेके लिये यूनियन बना लेते हैं । परन्तु यह याद रखना चाहिये कि जिस संस्था या संघका निर्माण द्वेष या प्रतिहिंसाकी भावनासे किया जाता है, उसके परिणाममें कभी भी शान्ति तथा यथार्थ लाभ नहीं मिलता; क्योंकि यह नियम है कि जिसकी आधारशिला ही क्रोध और लोभयुक्त होगी, उसका परिणाम किसीके लिये भी कभी हितकर नहीं हो सकता ।

प्रश्न‒संघके कर्मचारियोंका क्या कर्तव्य होना चाहिये ?

उत्तर‒उनका कर्तव्य है कि उनके अपने लिये जो नियम बनाये गये हैं, प्रत्येक कर्मचारी उसपर ध्यान दे और अपने कर्तव्यका सुचारुरूपसे पालन करे ।

स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः (गीता १८/४५)

अपने पीछे यूनियनके बलके अभिमानसे प्रेरित होकर द्वेष-वृत्तिसे संस्थाको नुकसान पहुँचानेकी चेष्टा की जाती है, वह सर्वथा निन्दनीय है । ऐसी चेष्टा कभी न हो, ऐसा दृढ़ संकल्प होना चाहिये । कारण, संस्थाकी सर्वतोमुखी उन्नतिपर ही उनकी उन्नति निर्भर है ।

अपने साथियोंमें किसीकी कुछ भी त्रुटि हो तो उसको दूर करना अपना परम कर्तव्य समझें । अहितके भयसे किसीकी त्रुटि या दोषको छिपानेसे उस व्यक्तिका नैतिक पतन होगा और संघमें अन्यायका प्रचार होकर परिणाममें उलटा अहित ही होगा । इसलिये दोषीको कभी प्रोत्साहन नहीं देना चाहिये ।

आर्थिक उन्नति चाहनेवालोंका यह अटल ध्येय होना चाहिये कि वे जहाँ कार्य करते हैं, उस संस्थाकी एवं सभीकी न्यायपूर्वक आर्थिक उन्नति कैसे हो‒यह सोचें और करें । केवल व्यक्तिगत आर्थिक उन्नतिकी इच्छा रखनेवालोंकी सुखदायी तथा स्थायी आर्थिक उन्नति नहीं हो सकती । यह नियम है ।

अपने समयका बड़ी सावधानीसे सदुपयोग करना चाहिये । हम किसी संस्थामें समय लगाकर बदलेमें पैसा लेते हैं, अतः काम कम करना, पैसा अधिक चाहना‒यह भाव बहुत ही हानिकारक है । हम जितने पैसे लेते हैं, उससे अधिक कार्य कर दें, जिससे हमारी कमाई शुद्ध होगी और न्यायपूर्वक कमाईके पैसोंका अन्न खानेसे हमारी बुद्धि पवित्र होगी । उससे उत्तरोत्तर लौकिक और पारलौकिक उन्नति होगी । क्योंकि सब जगह विजय धर्मकी ही होती है । हमारे लिये जितने समय काम करनेकी जिम्मेवारी है, उस समयके बीचमें आर्थिक, शारीरिक और व्यावहारिक हानि करनेवाले प्रमाद एवं आलस्य अनावश्यक कार्यमें समय नष्ट हो जाय, इसके लिये विशेष सावधानी रखनी चाहिये ।


कर्मचारियोंका कर्तव्य है कि वे संस्थाकी उन्नतिके साधनोंपर विशेष ध्यान रखें । उपभोक्ताओंके साथ उत्तम व्यवहार करें, चीजें शुद्धताके साथ बढ़िया बनावें एवं संस्थाकी कोई भी सामग्री कहीं भी नष्ट होती हो तो उसे अपनी व्यक्तिगत वस्तुकी तरह संभालकर रखें । साथ ही संस्थाके प्रबन्धकोंका आदेश आदर और सत्कारपूर्वक पालन करनेकी चेष्टा करें ।