।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ शुक्ल प्रतिपदा, वि.सं. २०७६ बुधवार
       कर्मचारियोंके तथा उद्योग- 
           संचालकोंके कर्तव्य
        

प्रश्न‒संस्थाके प्रबन्धकोंका क्या कर्तव्य होना चाहिये ?

उत्तर‒संसारमें लौकिक और पारलौकिक उन्नति सभी चाहते हैं । बुद्धिमान्‌ वे ही कहे जा सकते हैं, जिनका मुख्य ध्येय आध्यात्मिक उन्नति ही होता है । आध्यात्मिक उन्नति चाहनेवालोंको अपने उद्देश्यकी ओर सदा-सर्वदा सजग रहना चाहिये । मेरे सहयोगी रोटी, कपड़े तथा लौकिक वस्तुओंके आभावमें दुःख न पायें, मेरी तथा मेरे साथ काम करनेवालोंकी वास्तविक उन्नति कैसे हो, यह सोचते रहना चाहिये । यह तभी संभव है, जब अपनी भावना यह होगी कि उनका वास्तविक हित और उनके चित्तकी प्रसन्नता प्राप्त कर लेना मेरा प्रधान कर्तव्य है । आध्यात्मिक उन्नतिका लक्ष्य हर समय जाग्रत्‌ रहना चाहिये ।

कार्यकर्ता, ग्राहक, सत्संगी, बाहरसे आनेवाले अतिथि एवं घरवालोंके साथ भीतरसे दोष-दृष्टिरहित होकर हितभरी भावनासे आदर, नम्रता और प्रेमपूर्वक व्यवहार करनेका स्वभाव बनाना चाहिये ।

‘मैं कहीं अधिकारके अभिमानमें आकर कभी भी उनका अहित तो नहीं सोच लेता हूँ, उनका अपमान और तिरस्कार तो नहीं कर बैठता हूँ, उनकी न्यायपूर्ण माँगोंकी उपेक्षा तो नहीं करता तथा उनके दुःखका कारण तो नहीं बन जाता हूँ’‒इस प्रकार विचार करते रहना चाहिये; क्योंकि दूसरोंका अहित सोचने, करने तथा उन्हें दुःख पहुँचानेसे अपना ध्येय तो कभी सिद्ध होता ही नहीं, वरं परिणाममें अहित तथा दुःखकी ही प्राप्ति होती है । इसलिये हर समय सभीके हितमें लगे रहना चाहिये, जिससे अपने ध्येयकी सिद्धि सुगमतासे होगी ।

ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः ॥ (गीता १२/४)

यदि किसी कर्मचारीके द्वारा वास्तवमें कोई भूल ही हो गयी हो तो उसे सबके सामने अपमानित नहीं करना चाहिये । एकान्तमें प्रेमपूर्वक मीठे शब्दोंमें उसकी हितभरी भावनासे उसका दोष बताकर भविष्यमें इस प्रकारकी भूल न हो, इसके लिये चेतावनी देनी चाहिये ।

प्रश्न‒मनुष्य अपनी ही विजय चाहता है । सच्‍ची विजयका मार्ग क्या है ?

उत्तर‒विजयका वास्तविक स्वरूप है दूसरेके हृदयपर अधिकार प्राप्त करना । बलपूर्वक शक्तिसे दबाकर विजय प्राप्त करना, वास्तविक विजय नहीं किन्तु पराजय ही है; क्योंकि पराजितके हृदयमें दबा हुआ द्वेष अवसर पाकर भयंकर रूप धारण कर लेता है और विजय प्राप्त करनेवालेकी भविष्यमें पराजय करनेमें समर्थ होता है । अतः किसीको भी निर्बल समझकर उसका अनिष्ट करनेकी भावना कभी किंचित्‌-मात्र भी मनमें नहीं रखनी चाहिये । भगवान्‌ श्रीरामने अंगदसे कहा‒

काजु  हमार  तासु  हित होई ।
रिपु सन करहु  बतकही सोई ॥

वास्तविक विजय वहीं होती है, जहाँ इष्ट भगवान्‌ और पालनीय धर्म होता है; क्योंकि भगवान्‌ सर्वशक्तिमान्‌ हैं और धर्मका फल स्थायी है । इसलिये भगवान्‌का आश्रय और धर्मका आचरण होनेसे विजय होती है तथा लौकिक एवं पारलौकिक उन्नति भी वहीं होती है ।

यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः ।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम ॥
                                             (गीता १८/७८)

जहाँ कृष्ण योगेश्वर हरि हों,   जहाँ  धनुर्धर  पार्थ  महान्‌ ।
वहीं विजय, श्री, ध्रुवा नीति रहतीं बिभूति-मति मेरी जान ॥

जहाँ पैसा ही इष्ट हो और उपाय झूठ-कपट हो, वहाँ पाप, दुःख, आपसमें संघर्ष, अन्याय तथा अहितरूपसे पराजय ही होगी ।

वास्तविक विजयकी इच्छा रखनेवालोंको अपना तथा दूसरोंका तत्काल तथा परिणाममें हित हो, वही काम करना चाहिये । इनमें तत्कालकी अपेक्षा परिणामकी और अपने हितकी अपेक्षा दूसरेके हितकी प्रधानता है । कोई भी संस्था हो, जिसमें व्यक्तिगत स्वार्थके त्यागी, सत्यवादी, कर्तव्यपरायण और दूसरोंके हितैषी कार्यकुशल एवं तत्परतावाले पुरुष अधिक होंगे, वहाँ सफलता, न्याय और विजय स्वतः होगी । अपनी संख्या अधिक बढ़ाना अपनी वास्तविक विजयमें खास कारण नहीं है, किन्तु जितने हैं, उतने ही उत्तम आचरणवाले बनें, इसीसे विजय होती है । जैसे अधिक संख्यावाले कौरवोंपर कम संख्यावाले पाण्डवोंकी विजय हो गयी ।

चंदनकी चुटकी भली,  गाडी भलौ न काठ ।
बुद्धिवान एकहि भलौ, मूरख भला न साठ ॥

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒ ‘जीवनोपयोगी कल्याण-मार्ग’ पुस्तकसे