।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ शुक्ल द्वितीया, वि.सं. २०७६ गुरुवार
श्रीजगदीशरथ-यात्रा
  भगवान्‌ हमारी प्रतीक्षा कर रहे हैं
        

हमारे और भगवान्‌के बीचमें जो परदा दीखता है, दूरी दीखती है, अलगाव दीखता है, वह वास्तवमें हमारा ही बनाया हुआ है, भगवान्‌का नहीं । कारण कि भगवान्‌ सब जगह और सब समय विद्यमान हैं । इतना ही नहीं, वे हमारे माने हुए मैं-पनसे भी नजदीक विद्यमान है । पतित-से-पतित प्राणीके भीतर ज्यों-के-त्यों विद्यमान हैं । इसलिये साधकको चाहिये कि वह अपने ही भीतर अपने प्रेमास्पदको स्वीकार करके निश्चिन्त हो जाय । जब एक भगवान्‌के सिवाय किसी भी सत्ताकी मान्यता नहीं रहेगी, तब साधक अपनेमें ही अपने प्रेमास्पदको पा लेगा । परन्तु जबतक उसके भीतर ‘मैं शरीर हूँ’‒ऐसी मान्यता रहेगी, तबतक वह संसारके सिवाय कुछ नहीं पायेगा ।

जो अपने प्रेमास्पदको अन्य व्यक्तियों, सन्त-महात्माओं, ग्रन्थों आदिमें देखते हैं, उनको अपने प्रेमास्पदसे वियोगका अनुभव करना ही पड़ता है । परन्तु जो अपनेमें ही अपने प्रेमास्पदको देखते हैं, उनको अपने प्रेमास्पदसे वियोगका दुःख नहीं पाना पड़ता । अपनेसे अलग प्रेमास्पदको कितना ही अपने नजदीक दीखें, उससे वियोग अवश्य ही होगा । परन्तु अपनेसे अभिन्न (अपनेमें ही) अपने प्रेमास्पदको देखनेसे प्रेमास्पदसे नित्य-सम्बन्ध हो जाता है । जबतक साधकके अन्तःकरणमें अन्यकी सत्ता रहती है, तबतक वह अपने प्रेमास्पदसे नित्य-सम्बन्धका अनुभव नहीं करता, प्रत्युत अपने प्रेमास्पदको पानेके लिये संसारमें भटकता रहता है ।

साधकको कभी वास्तविक तत्त्वसे निराश नहीं होना चाहिये । कारण कि साधकमें तत्त्वप्राप्तिकी पूर्ण योग्यता, अधिकार एवं सामर्थ्य है । यह नियम है कि जो सांसारिक सुख भोग सकता है, वह संसारसे विमुख होकर आनन्दका भी अनुभव कर सकता है । जो संसारमें राग-द्वेष कर सकता ही, वह राग-द्वेषका त्याग करके प्रेम भी कर सकता है । जो भोगोंमें लग सकता है, वह भोगोंका त्याग करके योग भी कर सकता है । जिसको ग्रहण करना आता है, वह त्याग भी कर सकता है ।

कामनायुक्त प्राणी किसीसे प्रेम नहीं कर सकता । इसलिये कामनावाला व्यक्ति सच्‍चा आस्तिक नहीं बन सकता । मनुष्य सच्‍चा आस्तिक तभी बनता है, जब उसकी दृष्टिमें एक प्रेमास्पद (भगवान्‌)-के सिवाय अन्य कुछ भी नहीं रहता । ऐसे सच्‍चे आस्तिकको भगवान्‌की कृपासे प्रेमकी प्राप्ति होती है । यद्यपि भगवान्‌की कृपा सभी प्राणियोंपर समानरूपसे है, तथापि उस कृपाका अनुभव तभी होता है, जब मनुष्य सर्वथा भगवान्‌का ही हो जाता है । भगवान्‌के सिवाय किसी अन्यकी सत्ता स्वीकार न करना ही भगवान्‌का हो जाना है ।

एक भगवान्‌के सिवाय अन्य कोई भी हमारा प्रेमास्पद नहीं है । जब हम परमात्माके सिवाय अन्य किसीसे प्यार करते हैं, तब वह प्यार अपना तथा दूसरोंका संहार करने लगता है । यह प्रेम नहीं, प्रेमोन्माद (मोह) है । अपने देशका प्रेमोन्माद ही अन्य देशका संहार करता है । अपने सम्प्रदायका प्रेमोन्माद ही अन्य सम्प्रदायका संहार करता है । अपनी जातिका प्रेमोन्माद ही अन्य जातिका संहार करता है ।

अगर एक भगवान्‌के सिवाय अन्य सभी इच्छाएँ मिट जायँ तो भगवान्‌ बिना बुलाये आ जायँगे और संसार बिना मिटाये मिट जायगा । उनकी प्राप्तिके लिये भविष्यकी आशा रखना भूल है । दूसरोंकी सेवा करनी  चाहिये । अपने शरीर तथा संसारसे लेशमात्र भी सम्बन्ध न रहे‒यही ‘त्याग’ है और भगवान्‌के सिवाय लेशमात्र भी किसी सत्ताको स्वीकार न करे‒यही प्रेम है ।


जिसके भीतर कामनाएँ हैं, वही प्राणी प्रेम नहीं कर सकता । कारण कि कामनाएँ संसारकी और प्रेम परमात्माका होता है । कामनायुक्त व्यक्ति सांसारिक विषयोंका उपासक होता है और प्रेमयुक्त व्यक्ति भगवान्‌का उपासक होता है । संसारका उपासक परतन्त्र हो जाता है और भगवान्‌का उपासक स्वतन्त्र हो जाता है ।