सत्-तत्त्वकी प्राप्ति किसी क्रियासे नहीं होती । कारण कि
प्रत्येक क्रिया असत्में ही होती है, जबकि सत्-तत्त्वकी प्राप्ति असत्के
त्यागसे होती है । कामनाओंका अन्त होनेपर असत्का भी त्याग हो जाता है और सत्-तत्त्वकी
अभिलाषा जाग्रत् होनेपर भूतकालकी स्मृति नहीं होती, वर्तमानमें सत्-तत्त्वको
पानेकी व्याकुलता जाग्रत् होती है और भविष्यकी आशा मिट जाति है । सत्-तत्त्वकी
अभिलाषा सम्पूर्ण कामनाओंको मिटाकर सत्-तत्त्वकी अनुभूति करा देती है ।
जिनको
हम सांसारिक सुख कहते हैं, वे सब वास्तवमें मनकी थकावट हैं । मनकी थकावटसे होनेवाला सुख
तो मिट जाता है, पर पारमार्थिक आनन्द मिटता नहीं । वह आनन्द ही हमारा
स्वरूप है । मनकी थकावट हमारा स्वरूप नहीं है ।
जब संसारके सभी सुख (सुखासक्ति) मिट जाते हैं, तब उस
परमसुखका अनुभव होता है, जिसका वर्णन नहीं हो सकता‒‘यं
लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः’ (गीता ६/२२) । उस परमसुखका अनुभव
होनेपर सभी कामनाओंका नाश हो जाता है तथा किसी प्रकारकी कोई कमी शेष नहीं रहती‒‘रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते’ (गीता २/५९)
।
यदि मनुष्य दुःखसे बचना चाहे तो वह सुखकी
इच्छाको मिटा दे । यदि रोगसे बचना चाहे तो भोगकी इच्छाको मिटा दे । यदि अपमानसे
बचना चाहे तो सम्मानकी इच्छाको मिटा दे । यदि शोकसे बचना चाहे तो हर्षकी इच्छाको
मिटा दे । तात्पर्य है
कि दुःखका निर्माण स्वयं हमने किया है । हमारी इच्छाके
बिना कोई हमें दुःखी, पराधीन नहीं कर सकता ।
एक मार्मिक बात है कि मनुष्यको जिस वस्तुकी
आवश्यकता है, उसको प्राप्त करनेकी सामर्थ्य उसमें विद्यमान है । तात्पर्य है कि मनुष्य जो कुछ कर सकता है, उसीसे उसकी
आवश्यकताकी पूर्ति हो सकती है । संसार भी मनुष्यसे वही आशा करता है, जो वह कर सकता
है । भगवान् भी वही आज्ञा देते हैं, जो वह कर सकता है । मनुष्य
जो कर सकता है, उसको न करना ही अकर्तव्य है । जबतक मनुष्यकी वास्तविक आवश्यकताकी पूर्ति नहीं होती,
तबतक उसका करना समाप्त नहीं होगा, वह कुछ-न-कुछ करता ही रहेगा ।
कारण कि करना साधन है, साध्य नहीं । साध्यकी प्राप्ति होनेपर साधन शेष नहीं रहता
अर्थात् आवश्यकता शेष न रहनेपर करना भी शेष नहीं रहता, मनुष्य कृत्यकृत्य हो जाता
है ।
परमात्माकी अनन्त शक्ति प्राणिमात्रको निरन्तर
अपनी ओर खींचती रहती है । इसीलिये कोई भी परिस्थिति निरन्तर नहीं रहती । मनुष्यकी
ममता कहीं भी स्थायी नहीं रहती । उसका प्रत्येक वस्तु तथा व्यक्तिसे निरन्तर सम्बन्ध-विच्छेद होता रहता है । परमात्माकी वह अनन्त शक्ति न तो मनुष्योंपर शासन करती है,
न उनकी स्वतन्त्रता छीनकर उनको पराधीन बनाती है । यह
नियम है कि जो वस्तु जिससे उत्पन्न होती है, अन्तमें उसीमें विलीन होती है, तभी
पूर्णता होती है । जीव परमात्मासे अलग हुआ है; अतः जबतक वह परमात्मामें
विलीन नहीं होगा, तबतक पूर्णता नहीं होगी, वह भटकता ही रहेगा । इसीलिये परमात्माको
छोड़कर अन्य वस्तु, व्यक्ति, क्रिया, अवस्था, परिस्थिति आदिकी ममता-कामनामें फँसना
व्यर्थ है । उनकी प्राप्तिके लिये प्रयत्न करना व्यर्थ चेष्टा है । जीवकी
स्वाभाविक गति परमात्मामें विलीन होनेकी ही है । जब हम अपनी स्वाभाविक गतिसे विमुख
होकर अन्य वस्तु, व्यक्ति आदिसे सम्मुख हो जाते हैं, तब भगवान्की कृपा उस वस्तु,
व्यक्ति आदिसे वियोग करा देती है । जबतक हमारा परमात्मासे योग नहीं होगा, तबतक
प्रत्येक संयोगका वियोग होता रहेगा‒यह नियम है । संसारमें
होनेवाला परिवर्तन निरन्तर यह शिक्षा दे रहा है कि तुम मेरेमें मत फँसो । मैं
तुम्हारा लक्ष्य नहीं हूँ । तुम्हारा लक्ष्य परमात्मा है, जो निरन्तर तुम्हारी
प्रतीक्षा कर रहा है ।
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
‒ ‘सन्त-समागम’ पुस्तकसे
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