‘मैं भगवान्का हूँ, भगवान् मेरे हैं’‒इतना मान लो, फिर
आगे जो होना चाहिये, वह स्वतः होगा । इसको माननेके बाद निर्विकल्प हो जाओ । अब जितना उद्योग है, वह करो; नाम-जप
करो, कीर्तन करो, सत्संग करो, स्वाध्याय करो, मन्दिरमें जाओ, श्रीविग्रहके दर्शन
करो । जो कार्य भगवान्के, शास्त्रोंके विरुद्ध है, वह
काम मत करो । जहाँतक अपना वश चले, जितना कर सकते हो, उतना करो । इस
बातको हिलने-डुलने मत दो, चाहे विपत्ति आये, चाहे सम्पत्ति आये; कोई अनुमोदन करे
या विरोध करे । यह बात सच्ची है; अतः हमने तो मान ली, मान ली ।
शेष सब सच्ची हैं ।
अब प्रश्न हो सकता है कि हम ऐसा करें,
पर भगवान्की प्राप्ति न हो तो ? इसका उत्तर है कि इतने दिनोंमें आपने कौन-सा
बढ़िया काम कर लिया, जिसमें घाटा पड़ जायगा ? होगा तो लाभ ही होगा । आपमेंसे कोई
बताये कि हानि क्या होगी ? हानि कुछ होगी नहीं और धोखा मैं देता नहीं ! इससे लाभ ही
होगा; क्योंकि यह बात सच्ची है और सच्ची बात सिद्ध होकर ही रहेगी
। झूठी बात कबतक रहेगी ? शरीर-संसारको अपना माननेसे क्या ये अपने बन जायँगे ? ये कभी
अपने बने नहीं और बनेंगे नहीं; परन्तु इनको अपना मानोगे तो दुःख पाना पड़ेगा और
रोना पड़ेगा ! इनसे धोखा खाकर फिर सच्ची बात मानो तो इससे अच्छा यही है कि अभी मेरे
कहनेसे मान लो । बताओ इसमें क्या धोखा हो जायगा ? और यदि धोखा हो भी जाय,
तो इतनी बार धोखा खाया, एक बार मेरे कहनेसे भी खा लो ! परन्तु यदि आपमेंसे किसीको
भी धोखा दीखता हो तो कह दो भाई ! इसमें धोखा बिलकुल है ही नहीं । इसमें लाभके सिवा
किंचिन्मात्र भी नुकसान नहीं है । यह केवल मैं ही नहीं कहता, स्वयं भगवान् भी
कहते हैं‒ ‘ममैवांशो
जीवलोके’ (गीता १५/७) और सन्त-महात्मा भी कहते हैं‒ ‘ईस्वर अंस जीव अबिनाशी’ (मानस, उत्तर॰११७/२) । अतः इस बातको खूब दृढ़तासे पकड़ लो । यह
सन्तोंका निर्णय किया हुआ सिद्धान्त है । सन्तोंने, महात्माओंने इसे करके देखा है
और हम लोगोंपर कृपा करके इसे लिख दिया है, बता दिया है । जैसे कोई पिता धन कमाकर
लड़केको दे दे तो लड़केको क्या जोर आया ? ऐसे ही सन्त-महात्माओंने यह कमाई हुई पूँजी
हमें दे दी है । अब हमारा कर्तव्य है कि इसे सुरक्षित रखें, रद्दी न करें । रद्दी
होता है देखनेसे और करनेसे । इन्द्रियोंसे,
बुद्धिसे देखने और करनेको तो मानते हो सच्चा और भगवान्के, सन्त-महात्माओंके वचनोंको
मानते हो कच्चा,
यह गलती है । जो दीखता है, वह है नहीं । क्रिया भी नित्य नहीं है और
उसका फल भी नित्य नहीं है । अतः इनके भरोसे सत्यका निरादर करके सत्यका गला मत
घोटो, सत्यकी हिंसा मत करो । सत्यकी हिंसा करनेसे सत्यकी हिंसा नहीं होती, प्रतीत
अपनी ही हिंसा होती है, अपना ही पतन होता है । सत्य तो सत्य ही रहेगा । वह कभी
मिटेगा नहीं‒ ‘नाभावो
विद्यते सतः’ (गीता २/१६) । आप उसको नहीं मानेंगे तो आपको लाभ
नहीं होगा । इसलिये ‘मैं भगवान्का हूँ और भगवान् मेरे हैं’‒इस बातको मान लो । यह बहुत सरल और
ऊँचे दर्जेकी बात है । इससे सब कुछ हो जायगा !
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
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