।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
श्रावण कृष्ण प्रतिपदा, वि.सं. २०७६ बुधवार
           सत्संगके अमृत-कण
        

(१)

परमात्माके संगसे योग और संसारके संगसे भोग होता है ।
(२)

सुखकी इच्छा, आशा और भोग‒ये तीनों ही सम्पूर्ण दुखोंके कारण है ।
(३)

सुखकी इच्छाका त्याग करानेके लिये ही दुःख आता है ।

(४)

शरीरको ‘मैं’ और ‘मेरा’ मानना प्रमाद है; प्रमाद ही मृत्यु है ।

(५)

नाशवान्‌को महत्त्व देना ही बन्धन है ।

(६)

नाशवान्‌की चाहना छोड़नेसे अविनाशी तत्त्वकी प्राप्ति होती है ।

(७)

शरीरसे अपना सम्बन्ध मानना कुसंग है ।

(८)

आप भगवान्‌को नहीं देखते, पर भगवान्‌ आपको निरन्तर देख रहे हैं ।

(९)

ऐसा होना चाहिये, ऐसा नहीं होना चाहिये‒इसीमें सब दुःख भरे हुए है ।

(१०)

अपने स्वभावको शुद्ध बनानेके समान कोई उन्नति नहीं है ।

(११)

अच्छाईका अभिमान बुराईकी जड़ है ।

(१२)

मिटनेवाली चीज एक क्षण भी टिकनेवाली नहीं है ।

(१३)

शरीरको मैं-मेरा माननेसे तरह-तरहके और अनन्त दुःख आते हैं ।

(१४)

दूसरोंके दोष देखनेसे न हमारा भला होता है, न दूसरोंका ।

(१५)

नाशवान्‌की दासता ही अविनाशीके सम्मुख नहीं होने देती ।

(१६)

आप भगवान्‌के दास बन जाओ तो भगवान्‌ आपको मालिक बना देंगे ।

(१७)

आराम चाहनेवाला अपनी वास्तविक उन्नति नहीं कर सकता ।

(१८)

परमात्मा दूर नहीं हैं, केवल उनको पानेकी लगनकी कमी है ।

(१९)

जबतक नाशवान्‌ वस्तुओंमें सत्यता दिखेगी, तबतक बोध नहीं होगा ।

(२०)

अपनेमें विशेषता केवल व्यक्तित्वके अभिमानसे दीखती है ।