।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
श्रावण कृष्ण द्वितीया, वि.सं. २०७६ गुरुवार
           सत्संगके अमृत-कण
        

(२१)

भगवान्‌से विमुख होकर संसारके सम्मुख होनेके समान कोई पाप नहीं है ।

(२२)

परमात्माकी प्राप्तिमें भावकी प्रधानता है, क्रियाकी नहीं ।

(२३)

मनमें किसी वस्तुकी चाह रखना ही दरिद्रता है ।

(२४)

स्वार्थ और अभिमानका त्याग करनेसे साधुता आती है ।

(२५)

संसारसे विमुख होनेपर बिना प्रयत्न किये स्वतः सद्गुण आते हैं ।

(२६)

हमारा सम्मान हो‒इस चाहनाने ही हमारा अपमान किया है ।

(२७)

हमारा शरीर तो संसारमें है, पर हम स्वयं भगवान्‌में ही हैं ।

(२८)

मुक्ति इच्छाके त्यागसे होती है, वस्तुके त्यागसे नहीं ।

(२९)

भगवान्‌के लिये अपनी मनचाही छोड़ देना ही शरणागति है ।

(३०)

संसारकी सामग्री संसारके कामकी है, अपने कामकी नहीं ।

(३१)

संसारसे कुछ भी चाहोगे तो दुःख पाना ही पड़ेगा ।

(३२)

वस्तुका सबसे बढ़िया उपयोग है‒उसको दूसरेके हितमें लगाना ।

(३३)

मनुष्यका उत्थान और पतन भावसे होता है, वस्तु, परिस्थिति आदिसे नहीं ।

(३४)

आनेवाला जानेवाला होता है‒यह नियम है ।

(३५)

हम घरमें रहनेसे नहीं फँसते, प्रत्युत घरको अपना माननेसे फँसते हैं ।

(३६)

‘है’‒पनको परमात्माका न मानकर संसारका मान लेते हैं‒यही गलती है ।

(३७)

‘करेंगे’‒यह निश्चित नहीं है, पर ‘मरेंगे’‒यह निश्चित है ।

(३८)

जबतक अभिमान और स्वार्थ है, तबतक किसीके भी साथ प्रेम नहीं हो सकता ।

(३९)

असत्‌का संग छोड़े बिना सत्संगका प्रत्यक्ष लाभ नहीं होता ।

(४०)


भगवान्‌में अपनापन सबसे सुगम और श्रेष्ठ साधन है ।