।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
भाद्रपद कृष्ण द्वादशी, वि.सं. २०७६ मंगलवार
       अभ्याससे बोध नहीं होता

        

हमलोगोंके भीतर एक बात जँची हुई है कि हरेक काम अभ्याससे होता है; अतः तत्त्वज्ञान भी अभ्याससे होगा । वास्तवमें तत्त्वज्ञान अभ्याससे नहीं होता । यह बड़ी मार्मिक और बड़ी उत्तम बात है । अभ्याससे नयी स्थिति बनती है, संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद नहीं होता । यह बहुत मनन करनेकी बात है । यह बात आपको जँचा देना मेरे हाथकी बात नहीं है । परन्तु यह मेरी अनुभव की हुई बात है । अभ्याससे एक स्थिति बनती है, बोध नहीं होता । अभ्यासमें समय लगता है, जबकि परमात्मप्राप्ति तत्काल होनेवाली वस्तु है । जैसे, रस्सेके ऊपर चलना हो तो तत्काल नहीं चल सकते । उसके लिये अभ्यास करना ही पड़ेगा । अभ्यास किये बिना रस्सेपर नहीं चल सकते । परन्तु दो और दो चार होते हैं‒इसमें अभ्यास होता ही नहीं । तत्त्वज्ञानमें समयकी अपेक्षा है ही नहीं । परन्तु जिसके भीतर अभ्यासके संस्कार हैं, वह इस बातको जल्दी नहीं समझ सकता ।

अभ्यास और अनुभवमें बड़ा अन्तर है । अभ्याससे अनुभव नहीं होता, प्रत्युत एक नयी स्थिति बनती है । परमात्मतत्त्व स्थितिसे अतीत है । वह स्थितिसे नहीं मिलता‒यह बहुत मार्मिक बात है । परन्तु जिसने ज्यादा लोगोंका सत्संग किया है, ज्यादा पुस्तकें पढ़ी हैं, उनको यह बात समझनेमें कठिनाई होती है । इस बातका मैं भुक्तभोगी हूँ ! मैंने काफी पढ़ाई की है और वर्षोंतक अभ्यास किया है, इसलिये मेरेको इस बातका पता है । मैंने योगका अभ्यास किया है, वेदान्तका किया है, व्याकरणका किया है, काव्यका किया है, साहित्यका किया है, न्यायका किया है ! वेदान्तमें आचार्यतककी परीक्षाएँ दी हैं । यद्यपि मैं अपनेको विशेष विद्वान नहीं मानता, तथापि विद्याका अभ्यास मेरा किया हुआ है । इसलिये मेरे-जैसे व्यक्तिका जल्दी कल्याण नहीं हुआ ! जिसके भीतर यह बात जँची हुई है कि अभ्याससे कल्याण होता है, उसका जल्दी कल्याण नहीं होगा ।


कल्याणके लिये तीन बातें मुख्य हैं‒मैं शरीर नहीं हूँ, शरीर मेरा नहीं है और शरीर मेरे लिये नहीं है । इसमें अभ्यास क्या करेंगे ? अभ्यास करेंगे तो वर्ष बीत जायँगे, बोध नहीं होगा । अभ्यास न करें तो अभी इसी क्षण बोध हो सकता है; चाहे अन्तःकरण कैसा ही क्यों न हो ! आप मानें अथवा न मानें, मेरा कोई आग्रह नहीं है । परन्तु यह मेरी देखी हुई, समझी हुई बात है कि अभ्याससे तत्त्वज्ञान नहीं होता । अभ्याससे आप विद्वान बन जाओगे, पर तत्त्वज्ञान नहीं होगा । कितना ही अभ्यास करो, पर ‘मैं शरीर हूँ, शरीर मेरा है और शरीर मेरे लिये है’‒ये तीन बातें भीतरसे निकलती नहीं हैं । स्वरूपका बोध अभ्याससे सिद्ध होनेवाली चीज है ही नहीं । अभ्याससे नयी स्थिति बनती है, जबकि तत्त्व स्थितिसे अतीत है । स्थितिमें तत्त्व नहीं होता और तत्त्वमें स्थिति नहीं होती । उसको सहजावस्था कहते हैं, पर वास्तवमें वह अवस्था नहीं है । तत्त्व अवस्थासे अतीत है । अवस्थासे अतीत तत्त्व अभ्याससे नहीं मिलता, प्रत्युत तत्काल मिलता है । जो वस्तु जैसी है, उसे वैसी ही जाननेमें अभ्यास नहीं है । अभ्यासमें मन-बुद्धि-इन्द्रियाँका सहारा लेना पड़ेगा । तत्त्वबोधमें मन-बुद्धि-इन्द्रियोंकी जरूरत है ही नहीं । तत्त्वबोध वृक्षके फलकी तरह नहीं है, जिसमें समय लगता है । समय स्थिति बननेमें लगता है । जब अन्तःकरण शुद्ध होगा, मल-विक्षेप-आवरण दोष दूर होंगे, तब बोध होगा‒यह प्रक्रिया मेरी की हुई है । वास्तवमें तत्त्वबोधके लिये अन्तःकरण-शुद्धिकी जरूरत नहीं है, प्रत्युत अन्तःकरणसे सम्बन्ध-विच्छेदकी जरूरत है । केवल तत्त्वप्राप्तिकी चाहना जोरदार बढ़ जायगी तो चट प्राप्ति हो जायगी ।