पारमार्थिक बातें एक-एकसे विलक्षण हैं
। उनमें शरणागतिकी बात बहुत विलक्षण है ! शरणागतिमें दो
बातें सिद्ध होती हैं‒एक तो ईश्वरवाद सिद्ध होता है और एक आश्रय लेनेका स्वभाव
सिद्ध होता है । ईश्वरवाद कैसे सिद्ध होता है ? कि हरेक प्राणी
किसी-न-किसीको अपनेसे बड़ा मानता है और उसका आश्रय लेता है । पशु-पक्षियोंमें भी यह
बात देखी जाती है । हम जब बूंदीमें रहते थे (कोटा, राजस्थान), तब एक रात हम सब
साधु सो रहे थे । रातमें वहाँ एक बघेरा
(चीता) आया । वहाँ दो कुत्ते थे । बघेरेको देखते ही वे कुत्ते डरते हुए चट
हमारे पास आकर चिपक गये; क्योंकि बघेरा कुत्ते और गधेको खा जाता है । अतः भय
लगनेपर पशु-पक्षी भी अपनेसे बड़ेका आश्रय लेते हैं । ऐसे ही मात्र जन्तु किसी-न-किसीका
आश्रय लेते हैं । कोई बिल बनाकर रहता है, कोई घर बनाकर रहता है, कोई किसी तरहसे
रहता है । जंगम प्राणी तो दूर रहे, स्थावर प्राणी भी अपनेसे बड़ेका आश्रय लेते हैं
। जैसे कोई लता है, वह भी दीवार, वृक्ष आदिका सहारा लेकर ऊपर चढ़ती है । जीवमात्रमें आश्रय लेनेकी स्वाभाविक शक्ति है । कोई
गुरुका आश्रय लेता है, कोई ग्रन्थका आश्रय लेता है, कोई इष्टका आश्रय लेता है ।
किसी-न-किसीका आश्रय लेकर उससे रक्षा चाहता है, उसके अधीन होना चाहता है । इस प्रकार किसी-न-किसीका आश्रय लिये बिना कोई नहीं रहता; और
जिसका आश्रय लेता है, उसको बड़ा मानता है, तो ईश्वरवाद सिद्ध हो गया । जो
ईश्वरको नहीं मानता, ऐसा नास्तिक पुरुष भी माँ-बापको बड़ा मानता है, किसीको
विद्यामें बड़ा मानता है, किसीको आयुमें बड़ा मानता है; इस तरह किसी-न-किसीको बड़ा मानता ही है । विद्यामें, बुद्धिमें,
योग्यतामें, जन्ममें (कि यह हमारेसे पहले जन्मा है) आदि किसी विषयमें किसीको भी
अपनेसे बड़ा मान लिया ईश्वरवाद सिद्ध हो गया ।
ईश्वर सर्वोपरि है, सबसे बड़ा है । पाताञ्जल-योगदर्शनमें
लिखा है‒‘पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात्’ (१/२६)
अर्थात् पहले जितने हो चुके हैं, उन सबका गुरु है
ईश्वर, क्योंकि उसका कालसे व्यवधान नहीं है । सबसे पहले होनेसे वह ईश्वर
सबसे बड़ा है और सब उससे शिक्षा लेते हैं, उसके आश्रित होते हैं । इसलिये उस
ईश्वरका ही आश्रय लेना चाहिये । परन्तु एक ईश्वरका आश्रय
न लेनेसे कइयोंका आश्रय लेना पड़ता है । कोई पदका आश्रय लेता है, कोई अपनी
योग्यताका आश्रय लेता है, कोई अपनी बुद्धिका आश्रय लेता है, कोई अपने बेटे-पोतोंका
आश्रय लेता हा, इस प्रकार मनुष्य जिस-किसीका आश्रय लेता
है, वह तो बड़ा हो जाता है और मनुष्य खुद छोटा हो जाता है, गुलाम हो जाता है ।
वह समझता है कि मेरे पास इतने रुपये हैं, मैं इतने रुपयोंका मालिक हूँ, पर मालिकपना
तो वहम है, सिद्ध होता है गुलामपना ! अपने पास रुपये हों तो वह अपनेको बड़ा मानता
है और रुपये न हों तो वह अपनेको छोटा मानता है । जब वह
रुपयोंसे अपनेको बड़ा मानता है, तो खुद छोटा सिद्ध हो गया न ? बड़े तो रुपये ही हुए
। खुदकी तो बेइज्जती ही हुई ।
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