वाल्मीकि बाबाके यहाँ लव-कुशका जन्म हुआ था । सीताजीने
लव-कुशको सब कुछ सिखाया । सीताजीने ही उनको युद्धविद्या सिखायी कि ऐसे बाण चलाओ ।
वे सीताजीको ही बाप मानते थे । जब लव-कुशने रामाश्वमेध-यज्ञका घोड़ा पकड़ा तो पहले
माँ सीताजीको याद करके प्रणाम किया, फिर युद्ध किया । युद्धमें उन्होंने विजय कर
ली ! वहाँ हनुमान्जी थे, अंगद भी थे, शत्रुघ्नजी भी थे, भरतका बेटा पुष्कर भी था,
बड़े-बड़े महारथी थे । उन सबको लव-कुशने हरा दिया, उनके छक्के छुड़ा दिये और
हनुमानजी तथा अंगदको पकड़ लिया ! उनको पकड़ करके माँके पास ले आये और बोले कि हम दो
बन्दर लाये हैं खेलनेके लिये ! दोनोंकी पूँछ आपसमें बाँध दीं । माँने कहा कि यह
क्या किया तुमने ? जैसे तू मेरा बेटा है, वैसे ही हनुमान् भी मेरा बेटा है । वे
बोले कि हमने ठीक किया है, बेठीक नहीं किया है; आप कहो तो छोड़ देंगे । माँके
कहनेसे उन्होंने दोनोंको छोड़ दिया । इस तरह माँ सीताजीको
ही सर्वोपरि समझनेसे, उनका ही आश्रय लेनेसे छोटे-छोटे बालकोंने रामजीकी सेनापर विजय
कर ली !
वाल्मीकिजी लव और कुशको रामजीकी राजसभामें ले गये । वहाँ उन्होंने
वाल्मीकिजीकी सिखायी हुई रामायणको बहुत सुन्दर ढंगसे गाया । रामजी उनको इनाम देने
लगे तो वे चिढ़ गये कि देखो, राजा कितना अभिमानी है ! हमारेको देता है । हम कोई
ब्राह्मण हैं ? हमारे गुरुजीने कहा है कि तुम
क्षत्रिय हो, ब्राह्मण नहीं हो । हम लेनेवाले, माँगनेवाले नहीं हैं । फिर
उनको समझाया गया कि ये तुम्हारे पूजनीय, आदरणीय पिताजी हैं, नहीं तो वे रामजीको
कुछ नहीं समझते थे । उनकी दृष्टिमें माँ-बाप आदि जो कुछ है, वह सब सीताजी ही हैं ।
उनके लिये सीताजीके सामान संसारमें कोई नहीं है । इसलिये
मनुष्यको किसीका सहारा लेना हो तो सर्वोपरि भगवान्के चरणोंका ही सहारा लेना
चाहिये, ‘एकै
साधे सब सधै, सब साधे सब जाय ।’ हमारे प्रभु हैं,
प्रभुके हम हैं‒यह हमारा अभिमान भूलकर भी कभी न जाय‒
अस अभिमान जाइ जनि भोरे ।
मैं सेवक
रघुपति पति मोरे ॥
(मानस
३/११/११)
सज्जनो ! कोई रुपयोंका सहारा लेता है, कोई बलका सहारा लेता
है, कोई किसीका सहारा लेता है, तो कोई किसीका, इस तरह क्यों दर-दर भटकते हो ? जो अपने हैं, उन प्रभुका ही सहारा लो । अन्तमें उनसे ही काम
चलेगा और किसीसे नहीं चलेगा । भगवान्के सिवा और सब कालका चारा है । सबको काल खा
जाता है ।
भगवान्के चरणोंकी शरण ले लो तो निहाल हो जाओगे
। आज ही विचार कर लो कि मैं
तो भगवान्का हूँ और भगवान् मेरे हैं, बस । सच्ची बात
है, सिद्धान्तकी बात है‒पक्की बात है । भगवान् सबका पालन-पोषण करते हैं, चाहे कोई भगवान्को माने
या न माने, आस्तिक-नास्तिक कैसा ही क्यों न हो ! क्योंकि भगवान् सब प्राणियोंमें
समान हैं‒‘समोऽहं सर्वभूतेषु’ (गीता ९/२९) ।
परन्तु जो भगवान्का आश्रय ले लेता है, उसका
तो कहना ही क्या है ! उनके चरणोंका आश्रय लेनेसे
तो मौज हो ही जाती है ! आनन्द-ही-आनन्द हो जाता है ।
धिन सरणो महराजको, निसदिन करियै मौज ।
रामचरण संसार
सुख,
दई दिखावै नौज ॥
भगवान् संसारका सुख कभी न दिखायें । यह संसारका सुख ही फँसानेवाला है । इसके लोभमें आकर आदमी भगवान्से
विमुख हो जाता है, भगवान्का आश्रय छोड़कर सुखका आश्रय ले लेता है । अतः हमें
संसारका सुख लेना ही नहीं है । हमें तो प्रभुके चरणोंकी शरण होना है । वास्तवमें तो सदासे ही भगवान्के
और भगवान् हमारे हैं । उनकी शरण लेनी नहीं पड़ती । जैसे बालकको माँका आश्रय लेना नहीं पड़ता । माँकी गोदीमें
बैठकर बालक निर्भय हो जाता है; क्योंकि उसकी दृष्टिमें माँसे बढ़कर कोई नहीं है ।
ऐसे ही भगवान्से
बढ़कर कोई नहीं है । अतः उनके चरणोंकी शरण लेकर निर्भय हो जाय ।
नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
‒‘भगवत्प्राप्तिकी सुगमता’ पुस्तकसे
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