प्रारब्धजन्य रोगके मिटानेमें दवाई तो केवल
निमित्तमात्र बनती है । मूलमें तो प्रारब्धकर्म समाप्त होनेसे ही रोग मिटता है । जिन कर्मोंके कारण रोग हुआ है,
उन कर्मोंसे बढ़कर कोई पुण्यकर्म, प्रायश्चित, मन्त्र आदिका अनुष्ठान किया जाय तो
प्रारब्धजन्य रोग मिट जाता है । परन्तु इसमें प्रारब्धके बलाबलका प्रभाव
पड़ता है अर्थात् प्रारब्धकी अपेक्षा अनुष्ठान प्रबल हो तो रोग मिट जाता है और अनुष्ठानकी अपेक्षा प्रारब्ध प्रबल हो तो रोग नहीं मिटता अथवा
थोड़ा ही लाभ होता है ।
लोगोंकी
ऐसी धारणा बन गयी है कि दवाईके रूपमें मांस, अण्डा, मदिरा आदिका सेवन करना बुरा
नहीं है । वास्तवमें यह महान् पतन करनेवाली बात है । ऐसा माननेवाले वे ही लोग होते हैं, जिनका केवल शरीरको ठीक
रखनेका, सुख-आरामका ही उद्देश्य है, जिनको धर्मकी अथवा अपना कल्याण करनेकी परवाह
नहीं है । अशुद्ध
चीज लेनेसे शरीर ठीक हो जायगा‒यह नियम नहीं है, उलटे नये रोग पैदा हो जायँगे ।
पशुओंके रोग उनका मांस खानेवालोंमें भी आ जाते हैं । अशुद्ध चीज लेनेसे जो पाप
होगा उसका दण्ड तो भोगना ही पड़ेगा । अतः दवाईके रूपमें भी अशुद्ध चीज नहीं खानी
चाहिये । जिसका शरीरमें राग नहीं है, जिसका उद्देश्य
अपना कल्याण करना है, वह नाशवान् शरीरके लिये अशुद्ध चीजोंका सेवन करके पाप क्यों
करेगा ?
अन्न और जल‒इन दोनोंके सिवाय मनुष्यमें अन्य किसी चीजका
व्यसन नहीं होना चाहिये । जीवित रहनेके लिये अन्न और जल
लेना ही पड़ता है, पर चाय, काफी, बीड़ी, सिगरेट, जर्दा, पान-मसाला, तम्बाकू, अफीम,
चिलम आदि न ले तो मनुष्य मर नहीं जाता । इन चीजोंको लेनेसे आदत खराब होती
है, समय खराब होता है, पैसा खराब होता है, शरीर खराब होता है । दुर्व्यसनोंकी आदत पड़ जाय तो फिर उनको छोड़ना बड़ा कठिन होता है
और मनुष्य उनके अधीन हो जाता है । पराधीनको स्वप्नमें भी सुख नहीं मिलता‒‘पराधीन सपनेहुँ सुखु नाहीं’ (मानस, बाल॰ १०२/३) ।
गीतामें भगवान्ने ‘आयुःसत्त्वबलारोग्यसुखप्रीति
विवर्धनाः’ पदोंसे सात्त्विक भोजनका फल पहले बताया और बादमें भोजनके
पदार्थोंका वर्णन किया । इससे सिद्ध होता है कि सात्त्विक मनुष्य भोजन करनेसे पहले
उसके परिणामपर विचार करता है ।[1] परन्तु राजस मनुष्यकी दृष्टि पहले भोजनकी तरफ जाती है,
उसके परिणामकी तरफ नहीं, इसलिये भगवान्ने पहले राजस पदार्थोंका वर्णन किया और
बादमें ‘दुःखशोकामयप्रदाः’ पदसे उसका फल बताया ।[2] अगर मनुष्य आरम्भमें ही भोजनके परिणामपर विचार करे तो फिर
उसको राजस भोजन करनेमें हिचकिचाहट होगी; क्योंकि कोई भी मनुष्य परिणाममें दुःख,
शोक और रोगको नहीं चाहता । परन्तु भोजनमें आसक्ति होनेके कारण राजस मनुष्यकी
बुद्धि परिणामकी तरफ जाती ही नहीं । तामस मनुष्यमें मूढ़ता रहती है; अतः मोहपूर्वक
भोजन करनेके कारण वह परिणामको देखता ही नहीं । इसलिये भगवान्ने तामस भोजनका फल
बताया ही नहीं ।[3] भोजन न्याययुक्त है या नहीं,
उसपर मेरा हक लगता है या नहीं, वह शास्त्रकी आज्ञाके अनुसार है या नहीं, उसका
परिणाम अच्छा है या नहीं‒इन बातोंपर कुछ भी विचार न करके तामस मनुष्य पशुकी तरह खानेमें
प्रवृत्त हो जाता है ।
[1] आयुःसत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धनाः ।
रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या आहाराः सात्त्विकप्रियाः ॥ |