सात्त्विक मनुष्य तो श्रेष्ठ तो है ही, उससे भी श्रेष्ठ वह
भगवद्भक्त है, जो भोजनके पदार्थोंको पहले भगवान्के अर्पण करके फिर उनको
प्रसादरूपसे ग्रहण करता है । इसलिये गीतामें भगवान् कहते हैं‒
यत्करोषि यदाश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् ।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् ॥
शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे
कर्मबन्धनैः ।
संन्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि ॥
(९/२७-२८)
‘हे कुन्तीपुत्र ! तू जो कुछ करता है, जो कुछ
भोजन करता है, जो कुछ यज्ञ करता है, जो कुछ दान देता है और जो कुछ तप करता है, वह
सब मेरे अर्पण कर दे । इस प्रकार मेरे अर्पण करनेसे तू कर्मबन्धनसे और शुभ (विहित)
तथा अशुभ (निषिद्ध) सम्पूर्ण कर्मोंके फलोंसे मुक्त हो जायगा । ऐसे अपनेसहित सब
कुछ मेरे अर्पण करनेवाला और सबसे सर्वथा मुक्त हुआ तू मुझे प्राप्त हो जायगा ।’
सब कुछ
भगवान्के अर्पण करनेका परिणाम यह होगा कि
मनुष्यका जन्म-मरणरूप महान् रोग मिट जायगा । जन्म-मरणरूप रोग मिटनेसे ही
मनुष्यको वास्तविक आरोग्यकी प्राप्ति होगी । इस आरोग्यको प्राप्त करना ही
मानव-जीवनका लक्ष्य है ।
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
‒ ‘सन्त-समागम’ पुस्तकसे
बुराईका त्याग
साधकको चाहिये कि वह किसीको बुरा न समझे, किसकी बुराई न
करे, किसीकी बुराई न सोचे, किसीमें बुराई न देखे, किसीकी बुराई न सुने और किसीकी
बुराई न कहे । इन छः बातोंका दृढ़तापूर्वक पालन करनेसे साधक बुराई-रहित हो जायगा ।
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कोई बुरा करे तो बदलेमें उसका बुरा न चाहकर यह समझो कि अपने
ही दाँतोंसे अपनी जीभ कट गयी !
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भलाई करनेकी उतनी आवश्यकता
नहीं है, जितनी बुराईका त्याग करनेकी आवश्यकता है । बुराईका त्याग करनेसे भलाई
अपने-आप होगी, करनी नहीं पड़ेगी ।
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जिसको हम अच्छा समझते हैं, उसका पूरा-का-पूरा पालन करनेकी
जिम्मेवारी हमपर नहीं है । परन्तु जिसको हम बुरा समझते हैं, उसका पूरा-का-पूरा
त्याग करनेकी जिम्मेवारी हमपर है और उसके त्यागका बल, योग्यता, ज्ञान, सामर्थ्य भी
भगवान्ने हमें दिया है ।
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वीरता भलाई करनेमें नहीं है, प्रत्युत किसीकी भी बुराई न
करनेमें है ।
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जो अपना कल्याण चाहता है, उसे किसीके ही प्रति बुरी भावना
नहीं करनी चाहिये ।
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दूसरोंके प्रति हमारी बुरी भावना होनेसे उनका बुरा होगा या
नहीं होगा‒यह तो निश्चित नहीं है, पर हमारा अन्तःकरण तो मैला हो ही जायगा ।
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याद राखो, किसीका भी बुरा करोगे तो उसका बुरा होनेवाला ही
होगा, पर आपका नया पाप हो ही जायगा ।
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भलाई करनेसे सीमित भलाई होती है, पर बुराई छोड़नेसे असीम
भलाई होती है ।
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भला बननेके लिये हमें कुछ करनेकी जरूरत नहीं है । केवल
बुराई सर्वथा छोड़ दें तो हम भले हो जायँगे ।
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नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
‒ ‘अमृत-बिन्दु’ पुस्तकसे
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