भगवान्के विषयमें सन्तोष करना और संसारके विषयमें असन्तोष
करना महान् हानिकारक है ।
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जैसे मछली जलके बिना व्याकुल हो जाती है, ऐसे ही हम यदि
भगवान्के बिना व्याकुल हो जायँ तो भगवान्के मिलनेमें देर नहीं लगेगी ।
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भगवान्की प्राप्ति होनेपर फिर कुछ भी करना, जानना और पाना
शेष नहीं रहता । इसीमें मनुष्यजीवनकी पूर्णता, सफलता है ।
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साधकको विचार करना चाहिये कि भगवान् सब देशमें हैं, इसलिये
यहाँ भी है; सब कालमें हैं, इसलिये अब भी हैं; सबमें हैं, इसलिये अपनेमें भी हैं;
सबके हैं, इसलिये मेरे भी हैं ।
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भगवत्प्राप्तिमें व्याकुलतासे जितना
जल्दी लाभ होता है, उतना जल्दी लाभ विचारपूर्वक किये गये साधनसे नहीं होता ।
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स्वयंमें तीव्र उत्कण्ठा न होनेके कारण ही भगवत्प्राप्तिमें
देर हो रही है ।
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खेलमें छिपे हुए बालकको दूसरा बालक देख ले तो वह सामने आ
जाता है कि अब तो इसने मुझे देख लिया, अब क्या छिपना ! ऐसे ही भगवान् सब जगह छिपे
हुए हैं । अगर साधक सब जगह भगवान्को देखे तो फिर भगवान् उससे छिपे नहीं रहेंगे,
सामने आ जायँगे ।
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सब ओरसे विमुख होनेपर साधक अपनेमें ही अपने प्रियतम भगवान्को
पा लेता है ।
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भगवत्प्राप्तिका सरल उपाय क्रिया नहीं है, प्रत्युत लगन है
।
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अपनी प्राप्तिके लिये भगवान्ने यदि जीवको
मनुष्यशरीर दिया है तो उसके लिये पूरी योग्यता और सामग्री भी साथ ही दी है । इतनी
योग्यता और सामग्री दी है कि मनुष्य अपने जीवनमें कई बार भगवत्प्राप्ति कर ले !
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उत्कट अभिलाषाकी कमीसे परमात्मप्राप्तिमें
देरी लगती है, उद्योगकी कमीसे नहीं ।
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परमात्माके साथ हरेक वर्ण, आश्रम, जाति,
सम्प्रदाय आदिका समानरूपसे सम्बन्ध है । इसलिये जो जहाँ है, वहीं परमात्माको पा
सकता है ।
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असत्का आश्रय लेकर असत्के द्वारा सत्को
प्राप्त करनेकी चेष्टा महान् भूल है ।
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जिसके लिये मनुष्यशरीर मिला है, उसकी
प्राप्ति कठिन है तो सुगम क्या है ?
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