मनुष्यमें कर्म करनेकी एक स्वाभाविक रुचि रहती है । कारण कि
वह कुछ-न-कुछ पाना चाहता है । अतः कुछ-न-कुछ पानेके उद्देश्यसे वह जन्मसे मृत्युपर्यन्त आसक्तिपूर्वक
कर्मोंमें लगा रहता है । कुछ पानेकी आशाके कारण
कर्मोंमें उसकी आसक्ति इतनी अधिक रहती है कि जब वृद्धावस्थामें उसकी इन्द्रियाँ
कर्म करनेमें असमर्थ हो जाती हैं, तब भी वह कर्मोंसे असंग नहीं हो पाता ।
इस प्रकार आसक्तिपूर्वक कर्म करते-करते ही वह कालके मुखमें चला जाता है । ऐसी परिस्थितिमें हठपूर्वक कर्मोंका त्याग करनेकी अपेक्षा कोई
ऐसा उपाय ही सफल हो सकता है, जिसके अन्तर्गत शास्त्रविहित कर्म करते हुए ही
कर्मासक्ति मिट जाय और मनुष्यको कल्याणकी प्राप्ति हो जाय । इस दृष्टीसे मनुष्यके लिये कर्मयोगका अनुष्ठान ही एक
सफल एवं सुगम उपाय है । कर्मयोग
ऐसे है, जैसे भोजनमें ही औषध मिला दी जाय !! श्रीमद्भागवतमें भगवान्के वचन हैं‒
योगास्त्रयो मया प्रोक्ता नृणां श्रेयो विधित्सया ।
ज्ञानं कर्म च भक्तिश्च
नोपयोऽन्योऽस्ति कुत्रचित् ॥
निर्विण्णानां ज्ञानयोगो न्यासिनामिह कर्मसु ।
तेष्वनिर्विण्णचित्तानां कर्मयोगस्तु कामिनाम् ॥
यदृच्छया मत्कथादौ जातश्रद्धस्तु यः पुमान्
।
न निर्विण्णो नातिसक्तो भक्तियोगोऽस्य सिद्धिदः ॥
(११/२०/६-८)
अर्थात् अपना कल्याण चाहनेवाले मनुष्योंके
लिये मैंने तीन योग (मार्ग) बतलाये हैं‒ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग । इन
तीनोंके अतिरिक्त अन्य कोई कल्याणका मार्ग नहीं है । जो अत्यन्त वैराग्यवान् हैं,
वे ज्ञानयोगके अधिकारी हैं, जो संसारमें आसक्त हैं, वे कर्मयोगके अधिकारी हैं और
जो न अत्यन्त विरक्त हैं और न आसक्त हैं, वे भक्तियोगके अधिकारी हैं ।
उपर्युक्त भगवद्वचनोंके अनुसार संसारमें कर्मयोगके
अधिकारीयोंकी संख्या ही अधिकतम सिद्ध होती है । यहाँ शंका होती है कि संसारमें
आसक्त मनुष्य कर्मयोगके मार्गपर (परमात्माकी तरफ) कैसे चल पायेंगे ? इसका समाधान
भगवान्ने ‘नृणां श्रेयो विधित्सया’ पदोंमें कर
दिया है । तात्पर्य है कि सांसारिक भोग और उनके
संग्रहमें रुचि रहते हुए भी जो मनुष्य उन (भोगों) से अपनी रुचिको हटाकर अपना
कल्याण करना चाहता है, वह कर्मयोगका पालन करके सुगमतापूर्वक अपना कल्याण कर सकता
है । अपना कल्याण करनेका विचार जितना दृढ़ होगा, उतना ही शीघ्र उसका कल्याण
होगा ।
कर्मयोगका तात्पर्य है‒कर्म करते हुए परमात्माको
प्राप्त करना । कर्मयोगमें
दो शब्द हैं‒कर्म और योग । शास्त्रविहित कर्तव्य कर्मोंको ‘कर्म’ कहते हैं । कर्म संसार (फलप्राप्ति) के लिये भी किये जाते हैं और संसारसे
ऊँचा उठकर परमात्माको प्राप्त करनेके लिए भी किये जाते हैं । ‘योग’ की
व्याख्या भगवान्ने दो प्रकारसे की है‒(१) समताको योग कहते हैं‒‘समत्वं योग उच्यते’ (गीता २/४८) और (२) दुःख-संयोगके
वियोगको योग कहते हैं‒‘तं विद्याद् दुःखसंयोगवियोगं
योगसञ्ज्ञितम्’ (गीता ६/२३) । परमात्मा ‘सम’ है‒‘निर्दोषं
हि समं ब्रह्म’ (गीता ५/१९), अतः समतासे परमात्मामें स्थिति होती है, जिसे
‘योग’ कहते हैं । संसारसे सम्बन्ध ही दुःख-संयोग है । अतः संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद
होनेपर ‘योग’ (समता या परमात्मा)-की प्राप्ति हो जाती है । कर्मयोगमें योगका ही
महत्त्व है, ‘कर्म’ का नहीं । इसीलिये भगवान् कहते हैं कि कर्मोंमें योग ही
कुशलता है ‘योगः कर्मसु कौशलम्’ (गीता २/५०) ।
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