‘कर्म’का सम्बन्ध संसार (जड़ता) से एवं ‘योग’ का सम्बन्ध
स्वयं (चेतन) से है । अतः ‘कर्म’ संसारके लिये और ‘योग’
अपने लिये होता है । कर्मयोगमें
कर्म, कर्मसामग्री और कर्मफलमें ममता, कामना एवं आसक्तिका सर्वथा त्याग होना
आवश्यक है । कामना और आसक्तिको त्यागकर केवल संसारके हितके लिये
कर्म करनेपर संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद होकर परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है । अतःएव
भगवान् कहते हैं कि यथार्थ कर्म (केवल दूसरोंके हितके लिये किये गये कर्म) के
अतिरिक्त अन्य (अपने लिये किये गये) सभी कर्म बाँधनेवाले होते हैं‒
यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः
(गीता
३/९)
कर्मका सम्बन्ध ‘पर’ से होता है, ‘स्व’ से नहीं । अपने लिये कर्म करनेसे मनुष्य बँध जाता है अर्थात् उसका
सम्बन्ध संसारसे हो जाता है; क्योंकि स्वरूपसे मनुष्यमें कोई क्रिया नहीं
होती । सम्पूर्ण क्रियाएँ प्रकृतिमें होती हैं । प्रकृतिके सम्बन्धसे मनुष्य
प्रकृतिमें होनेवाली क्रियाको अपनेमें आरोपित कर लेता है ।
वास्तवमें कोई भी मनुष्य किसी भी अवस्थामें (जाग्रत,
स्वप्न, सुषुप्ति, मूर्च्छा एवं समाधितकमें भी) क्षणमात्रके लिये भी कर्म किये
बिना नहीं रह सकता । कारण कि प्रकृतिजनित गुणोंके वशमें होकर सभी मनुष्योंको कर्म
करनेके लिये बाध्य होना पड़ता है । इसीलिये मनुष्योंमें
स्वभावसे ही कर्म करनेका एक वेग विद्यमान रहता है । हठपूर्वक कर्मोंका स्वरूपसे
त्याग करने अथवा अपने लिये कर्म करनेपर वह वेग शान्त नहीं होता । निष्कामभावपूर्वक
दूसरोंके हितके लिये कर्म करनेपर वह वेग शान्त हो सकता है । निष्कामभावपूर्वक
दूसरोंके हितके लिये कर्म करनेपर ही वह वेग शान्त हो सकता है इसीलिये कहा है‒‘आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते’ (गीता ६/३) अर्थात् जो योग (समता) में आरूढ़ होना चाहता है, ऐसे मननशील
योगीके लिये कर्तव्यकर्म कारण है । इस दृष्टीसे परमात्माकी प्राप्तिके लिये
कर्मयोगका अनुष्ठान करना सभीके लिये आवश्यक एवं सुगम है ।
मनुष्यशरीर कर्मयोनि है । कर्म मनुष्यशरीरमें किये जाते हैं
और उनका फल अन्य योनियोंमें भोगा जाता है । इसीलिये मनुष्यशरीरमें बुद्धिकी
प्रधानता है । अपना कल्याण करना एवं दूसरोंको सुख
पहुँचाना, उनकी सेवा करना ही बुद्धिका सदुपयोग है । सुखभोग और संग्रह करना एवं
अनुकूलताकी प्राप्तिमें सुखी और प्रतिकूलताकी प्राप्तिमें दुःखी होना बुद्धिका
दुरुपयोग है । एकमात्र मनुष्यशरीर ही कर्तव्यकपालन करनेके लिये है । सुखभोग
एवं अनुकूलता-प्रतिकूलताकी प्राप्तिमें सुखी-दुःखी होना तो पशु-पक्षी आदि निम्न
योनियोंमें भी है, जिनके सामने कर्तव्य-पालनका प्रश्न ही नहीं है । जिनसे केवल संसारका हित होता हो, ऐसे कर्म करना ही कर्मयोग है
।
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