।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
       पौष कृष्ण अष्टमी, वि.सं.२०७६ गुरुवार
   कल्याणका सुगम साधन-कर्मयोग


कर्म’का सम्बन्ध संसार (जड़ता) से एवं ‘योग’ का सम्बन्ध स्वयं (चेतन) से है । अतः ‘कर्म’ संसारके लिये और ‘योग’ अपने लिये होता है । कर्मयोगमें कर्म, कर्मसामग्री और कर्मफलमें ममता, कामना एवं आसक्तिका सर्वथा त्याग होना आवश्यक है । कामना और आसक्तिको त्यागकर केवल संसारके हितके लिये कर्म करनेपर संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद होकर परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है । अतःएव भगवान्‌ कहते हैं कि यथार्थ कर्म (केवल दूसरोंके हितके लिये किये गये कर्म) के अतिरिक्त अन्य (अपने लिये किये गये) सभी कर्म बाँधनेवाले होते हैं‒

यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः
                                          (गीता ३/९)

कर्मका सम्बन्ध ‘पर’ से होता है, ‘स्व’ से नहीं । अपने लिये कर्म करनेसे मनुष्य बँध जाता है अर्थात् उसका सम्बन्ध संसारसे हो जाता है; क्योंकि स्वरूपसे मनुष्यमें कोई क्रिया नहीं होती । सम्पूर्ण क्रियाएँ प्रकृतिमें होती हैं । प्रकृतिके सम्बन्धसे मनुष्य प्रकृतिमें होनेवाली क्रियाको अपनेमें आरोपित कर लेता है ।

वास्तवमें कोई भी मनुष्य किसी भी अवस्थामें (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, मूर्च्छा एवं समाधितकमें भी) क्षणमात्रके लिये भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता । कारण कि प्रकृतिजनित गुणोंके वशमें होकर सभी मनुष्योंको कर्म करनेके लिये बाध्य होना पड़ता है । इसीलिये मनुष्योंमें स्वभावसे ही कर्म करनेका एक वेग विद्यमान रहता है । हठपूर्वक कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करने अथवा अपने लिये कर्म करनेपर वह वेग शान्त नहीं होता । निष्कामभावपूर्वक दूसरोंके हितके लिये कर्म करनेपर वह वेग शान्त हो सकता है । निष्कामभावपूर्वक दूसरोंके हितके लिये कर्म करनेपर ही वह वेग शान्त हो सकता है इसीलिये कहा है‒‘आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते’ (गीता ६/३) अर्थात् जो योग (समता) में आरूढ़ होना चाहता है, ऐसे मननशील योगीके लिये कर्तव्यकर्म कारण है । इस दृष्टीसे परमात्माकी प्राप्तिके लिये कर्मयोगका अनुष्ठान करना सभीके लिये आवश्यक एवं सुगम है ।


मनुष्यशरीर कर्मयोनि है । कर्म मनुष्यशरीरमें किये जाते हैं और उनका फल अन्य योनियोंमें भोगा जाता है । इसीलिये मनुष्यशरीरमें बुद्धिकी प्रधानता है । अपना कल्याण करना एवं दूसरोंको सुख पहुँचाना, उनकी सेवा करना ही बुद्धिका सदुपयोग है । सुखभोग और संग्रह करना एवं अनुकूलताकी प्राप्तिमें सुखी और प्रतिकूलताकी प्राप्तिमें दुःखी होना बुद्धिका दुरुपयोग है । एकमात्र मनुष्यशरीर ही कर्तव्यकपालन करनेके लिये है । सुखभोग एवं अनुकूलता-प्रतिकूलताकी प्राप्तिमें सुखी-दुःखी होना तो पशु-पक्षी आदि निम्न योनियोंमें भी है, जिनके सामने कर्तव्य-पालनका प्रश्न ही नहीं है । जिनसे केवल संसारका हित होता हो, ऐसे कर्म करना ही कर्मयोग है ।