कर्मयोगके विषयमें भगवान्ने कहते हैं‒
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोस्त्वकर्मणि ॥
(गीता २/४७)
तात्पर्य है कि मनुष्यको केवल कर्म करनेका अधिकार है ।
पुराने कर्मोंके फलस्वरूप मिली हुई सामग्रीपर तथा नये (अभी किये जानेवाले)
कर्मोंके फलस्वरूप आगे मिलनेवाली सामग्रीपर भी उसका कोई अधिकार नहीं है । इसलिये
मनुष्यको कर्मोंके फलका हेतु नहीं बनना चाहिये । सभी कर्म अनित्य अर्थात् आरम्भ होने और समाप्त होनेवाले
होते हैं । फिर उन कर्मोंसे मिलनेवाला
फल नित्य कैसे हो सकता है ? इस
दृष्टीसे कर्मयोगी कर्म और कर्मफल दोनोंसे ही अपना सम्बन्ध नहीं जोड़ता ।
हमारे पास कोई भी सामग्री न अपनी है, न अपने
लिये है । यह सामग्री संसारकी और संसारके लिये ही है । मनुष्य भूलसे ही उस सामग्रीको
अपनी और अपने लिये मानकर बँधता है और फलकी कामना करके भविष्यमें भी बँधनेकी तैयारी कर लेता है । कर्मयोगीकी प्रवृत्ति आरम्भसे ही
दूसरोंकी सेवा करनेकी रहती है । अतः भोग और संग्रहमें उसकी आसक्ति स्वतः मिट जाती
है । कर्मयोगमें
व्यक्तिगत सुखका सर्वथा त्याग होता है । इसलिये भगवान्ने कर्मयोगको
त्यागके नामसे कहा है (गीता १८/५-६) ।
मनुष्यको जो सामग्री, योग्यता, सामर्थ्य, परिस्थिति आदि
प्राप्त है, उसीके सदुपयोगसे उसे कर्मयोगका अनुष्ठान करना है । कर्मयोगमें
अप्राप्त सामग्रीकी अपेक्षा नहीं है; क्योंकि जो सामग्री हमारे पास नहीं है, उसकी
आशा संसार रखता ही नहीं । कर्मयोगकी यह विलक्षणता है कि
जो सामग्री, परिस्थिति आदि हमें मिली हुई है, केवल उसीके सदुपयोगके द्वारा हम
कर्मयोगका पूरा-पूरा पालन कर सकते हैं । भगवान् गीतामें कहते हैं कि
अपने-अपने (प्राप्त) कर्तव्यका ठीक रीतिसे आचरण करनेमात्रसे मनुष्यको परमसिद्धि
प्राप्त हो जाती है‒‘स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं
लभते नरः’ (१८/४५) । अतएव मनुष्य किसी भी देश, काल, परिस्थिति आदिमें क्यों
न हो, वह स्वार्थ, अभिमान, कामना, ममता आदिको त्यागकर सबके हितके लिये ही कर्म करे
।
कर्मयोगके मार्गपर स्थूलशरीरसे होनेवाली सेवा,
सूक्ष्मशरीरसे होनेवाला चिन्तन, ध्यान आदि और कारणशरीरसे होनेवाली समाधितकके
सम्पूर्ण कर्म केवल संसारके कल्याणके लिये ही
किये जाते हैं, अपने लिये नहीं । कारण कि दूसरेके
कल्याणके लिये कर्म करनेसे अपने स्वार्थका त्याग होता है ।
यद्यपि अपना कल्याण चाहना भी श्रेष्ठ भी है तथापि संसारका
कल्याण चाहना उससे कहीं अधिक श्रेष्ठ है । संसारके
कल्याणसे अपना कल्याण अलग मानना ही भूल है । वास्तवमें संसारका कल्याण चाहनेमें ही
अपना कल्याण स्वाभाविक रूपसे निहित है । स्थूल-शरीरका स्थूल-संसारके साथ, सूक्ष्म-शरीरका सूक्ष्म-संसारके
साथ तथा कारण-शरीरका कारण-संसारके साथ
अविभाज्य सम्बन्ध है । मनुष्य अपने
कल्याणके लिये जो कुछ भी करता है, वह सब संसारद्वारा प्रदत्त शरीर, इन्द्रियाँ, मन,
बुद्धि आदिकी सहायतासे ही करता है । अतः कर्म संसारकी सामग्रीसे करना और कल्याण अकेले चाहना
न्याययुक्त नहीं है ।
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