।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
       पौष कृष्ण दशमी, वि.सं.२०७६ शनिवार
       एकादशी-व्रत कल है
   कल्याणका सुगम साधन-कर्मयोग


कर्मयोगके विषयमें भगवान्‌ने कहते हैं‒

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा  ते संगोस्त्वकर्मणि ॥
                          (गीता २/४७)

तात्पर्य है कि मनुष्यको केवल कर्म करनेका अधिकार है । पुराने कर्मोंके फलस्वरूप मिली हुई सामग्रीपर तथा नये (अभी किये जानेवाले) कर्मोंके फलस्वरूप आगे मिलनेवाली सामग्रीपर भी उसका कोई अधिकार नहीं है । इसलिये मनुष्यको कर्मोंके फलका हेतु नहीं बनना चाहिये । सभी कर्म अनित्य अर्थात् आरम्भ होने और समाप्त होनेवाले होते हैं । फिर उन कर्मोंसे मिलनेवाला फल नित्य कैसे हो सकता है ? इस दृष्टीसे कर्मयोगी कर्म और कर्मफल दोनोंसे ही अपना सम्बन्ध नहीं जोड़ता ।

हमारे पास कोई भी सामग्री न अपनी है, न अपने लिये है । यह सामग्री संसारकी और संसारके लिये ही है । मनुष्य भूलसे ही उस सामग्रीको अपनी और अपने लिये मानकर बँधता है और फलकी कामना करके भविष्यमें भी बँधनेकी तैयारी कर लेता है । कर्मयोगीकी प्रवृत्ति आरम्भसे ही दूसरोंकी सेवा करनेकी रहती है । अतः भोग और संग्रहमें उसकी आसक्ति स्वतः मिट जाती है । कर्मयोगमें व्यक्तिगत सुखका सर्वथा त्याग होता है । इसलिये भगवान्‌ने कर्मयोगको त्यागके नामसे कहा है (गीता १८/५-६) ।

मनुष्यको जो सामग्री, योग्यता, सामर्थ्य, परिस्थिति आदि प्राप्त है, उसीके सदुपयोगसे उसे कर्मयोगका अनुष्ठान करना है । कर्मयोगमें अप्राप्त सामग्रीकी अपेक्षा नहीं है; क्योंकि जो सामग्री हमारे पास नहीं है, उसकी आशा संसार रखता ही नहीं । कर्मयोगकी यह विलक्षणता है कि जो सामग्री, परिस्थिति आदि हमें मिली हुई है, केवल उसीके सदुपयोगके द्वारा हम कर्मयोगका पूरा-पूरा पालन कर सकते हैं । भगवान्‌ गीतामें कहते हैं कि अपने-अपने (प्राप्त) कर्तव्यका ठीक रीतिसे आचरण करनेमात्रसे मनुष्यको परमसिद्धि प्राप्त हो जाती है‒‘स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः’ (१८/४५) । अतएव मनुष्य किसी भी देश, काल, परिस्थिति आदिमें क्यों न हो, वह स्वार्थ, अभिमान, कामना, ममता आदिको त्यागकर सबके हितके लिये ही कर्म करे ।

कर्मयोगके मार्गपर स्थूलशरीरसे होनेवाली सेवा, सूक्ष्मशरीरसे होनेवाला चिन्तन, ध्यान आदि और कारणशरीरसे होनेवाली समाधितकके सम्पूर्ण कर्म केवल संसारके कल्याणके लिये ही किये जाते हैं, अपने लिये नहीं । कारण कि दूसरेके कल्याणके लिये कर्म करनेसे अपने स्वार्थका त्याग होता है ।


यद्यपि अपना कल्याण चाहना भी श्रेष्ठ भी है तथापि संसारका कल्याण चाहना उससे कहीं अधिक श्रेष्ठ है । संसारके कल्याणसे अपना कल्याण अलग मानना ही भूल है । वास्तवमें संसारका कल्याण चाहनेमें ही अपना कल्याण स्वाभाविक रूपसे निहित है । स्थूल-शरीरका स्थूल-संसारके साथ, सूक्ष्म-शरीरका सूक्ष्म-संसारके साथ तथा कारण-शरीरका कारण-संसारके साथ अविभाज्य सम्बन्ध है । मनुष्य अपने कल्याणके लिये जो कुछ भी करता है, वह सब संसारद्वारा प्रदत्त शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदिकी सहायतासे ही करता है । अतः कर्म संसारकी सामग्रीसे करना और कल्याण अकेले चाहना न्याययुक्त नहीं है ।