कर्म और क्रियामें बहुत अन्तर है ।
कर्ममें कर्तृत्वाभिमान रहता है, अतः उसका फल होता है । क्रियामें कर्तृत्वाभिमान नहीं रहता, अतः उसका फल भी नहीं
होता । जैसे, बालकसे जवान होना, खाये हुए अन्नका पचना आदि ‘क्रिया’ है, जिसका फल
(बन्धन) नहीं होता । कर्मयोगी कर्म करते हुए भी (कामना,
ममता, आसक्ति आदि न होनेके कारण) कर्मोंसे स्वाभाविक रूपसे निर्लिप्त रहता है ।
इसलिये उससे क्रिया होती है, कर्म नहीं होता । अतएव उसके अन्तःकरणमें
अनुकूलता-प्रतिकूलतासे होनेवाले हर्ष-शोकादि विकार नहीं होते । यदि अनुकूलता-प्रतिकूलता आदिका उसपर प्रभाव पड़ता है तो वह
कर्मयोगी नहीं, अपितु कर्मी है । संसारसे किसी भी प्रकारकी आशा रखनेवाला मनुष्य
कर्मयोगका भलीभाँति अनुष्ठान कर ही नहीं सकता ।
यद्यपि कर्मयोगीको संसारकी कोई आवश्यकता नहीं रहती, तथापि
संसारको कर्मयोगीकी बहुत आवश्यकता रहती है; क्योंकि कर्मयोगका
पालन करके मनुष्य संसारमात्रके लिये बहुत उपयोगी हो जाता है । इसके विपरीत
अपने स्वार्थके लिये कर्म करनेवाला मनुष्य वास्तवमें न तो संसारके लिये और न अपने
लिये ही उपयोगी हो सकता है ।
आजकल
लोगोंमें प्रायः यह बात प्रचलित है कि मनुष्यके लिये ही यह सब संसार‒सुख-भोग बने
हैं, अतः इन्हें भोगना चाहिये । यह बिलकुल गलत बात है । वास्तवमें मनुष्य संसारके लिये है, न कि संसार मनुष्यके लिये । चौरासी लाख
योनियोंमें जितने जीव हैं, वे सब कर्मफल भोगनेके लिये मानो जेलखानेमें पड़े कैदी
हैं । कैदियोंके प्रबन्ध और हितके लिये जैसे अफसर रहता है, वैसे ही मनुष्य संसारके प्रबन्ध और हितके लिये है । प्याऊपर
बैठा व्यक्ति यदि यह सोचे कि जल मेरे लिये ही है अथवा अन्नका वितरण करनेवाला यह
सोचे कि अन्न मेरे लिये ही है, तो यह कितनी मूर्खताकी बात होगी । ऐसे ही संसार‒सुख-भोगोंको
अपना और अपने लिये मानना बहुत बड़ी भूल है, जिसका मनुष्यजीवनमें कोई स्थान नहीं है
।
लोग ऐसी शंका भी किया करते हैं कि भजन-ध्यान करने, दूसरोंकी
सेवा करने, परमात्माको प्राप्त करने आदिकी कामना भी तो ‘कामना’ ही है, फिर सर्वथा
निष्काम कैसे हुआ जा सकता है ? इसका समाधान यह है कि स्वरूपको
जाननेकी कामना, सेवा करनेकी कामना, भगवान्को प्राप्त करनेकी कामना ‘कामना’ नहीं
हैं; क्योंकि वह अपना है । संसारसे प्राप्त वस्तुको संसारकी सेवामें लगा देनेकी कामना ‘कामना’ नहीं है; क्योंकि वह अपना नहीं
है । अविनाशी-(सत्-) की कामना ‘कामना’ नहीं है; क्योंकि वह अपना है
। संसारसे प्राप्त वस्तुको संसारकी ही सेवामें लगा देनेकी कामना ‘कामना’ नहीं है,
अपितु ‘त्याग’ है; क्योंकि विनाशी (असत्) होनेके कारण संसार भी अपना नहीं है और
उससे प्राप्त वस्तु भी अपनी नहीं है ।
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