।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
       पौष कृष्ण एकादशी, वि.सं.२०७६ रविवार
  सफला एकादशी-व्रत (सबका)
   कल्याणका सुगम साधन-कर्मयोग


कर्म और क्रियामें बहुत अन्तर है । कर्ममें कर्तृत्वाभिमान रहता है, अतः उसका फल होता है । क्रियामें कर्तृत्वाभिमान नहीं रहता, अतः उसका फल भी नहीं होता । जैसे, बालकसे जवान होना, खाये हुए अन्नका पचना आदि ‘क्रिया’ है, जिसका फल (बन्धन) नहीं होता । कर्मयोगी कर्म करते हुए भी (कामना, ममता, आसक्ति आदि न होनेके कारण) कर्मोंसे स्वाभाविक रूपसे निर्लिप्त रहता है । इसलिये उससे क्रिया होती है, कर्म नहीं होता । अतएव उसके अन्तःकरणमें अनुकूलता-प्रतिकूलतासे होनेवाले हर्ष-शोकादि विकार नहीं होते । यदि अनुकूलता-प्रतिकूलता आदिका उसपर प्रभाव पड़ता है तो वह कर्मयोगी नहीं, अपितु कर्मी है । संसारसे किसी भी प्रकारकी आशा रखनेवाला मनुष्य कर्मयोगका भलीभाँति अनुष्ठान कर ही नहीं सकता ।

यद्यपि कर्मयोगीको संसारकी कोई आवश्यकता नहीं रहती, तथापि संसारको कर्मयोगीकी बहुत आवश्यकता रहती है; क्योंकि कर्मयोगका पालन करके मनुष्य संसारमात्रके लिये बहुत उपयोगी हो जाता है । इसके विपरीत अपने स्वार्थके लिये कर्म करनेवाला मनुष्य वास्तवमें न तो संसारके लिये और न अपने लिये ही उपयोगी हो सकता है ।

आजकल लोगोंमें प्रायः यह बात प्रचलित है कि मनुष्यके लिये ही यह सब संसार‒सुख-भोग बने हैं, अतः इन्हें भोगना चाहिये । यह बिलकुल गलत बात है । वास्तवमें मनुष्य संसारके लिये है, न कि संसार मनुष्यके लिये । चौरासी लाख योनियोंमें जितने जीव हैं, वे सब कर्मफल भोगनेके लिये मानो जेलखानेमें पड़े कैदी हैं । कैदियोंके प्रबन्ध और हितके लिये जैसे अफसर रहता है, वैसे ही मनुष्य संसारके प्रबन्ध और हितके लिये है । प्याऊपर बैठा व्यक्ति यदि यह सोचे कि जल मेरे लिये ही है अथवा अन्नका वितरण करनेवाला यह सोचे कि अन्न मेरे लिये ही है, तो यह कितनी मूर्खताकी बात होगी । ऐसे ही संसार‒सुख-भोगोंको अपना और अपने लिये मानना बहुत बड़ी भूल है, जिसका मनुष्यजीवनमें कोई स्थान नहीं है ।


लोग ऐसी शंका भी किया करते हैं कि भजन-ध्यान करने, दूसरोंकी सेवा करने, परमात्माको प्राप्त करने आदिकी कामना भी तो ‘कामना’ ही है, फिर सर्वथा निष्काम कैसे हुआ जा सकता है ? इसका समाधान यह है कि स्वरूपको जाननेकी कामना, सेवा करनेकी कामना, भगवान्‌को प्राप्त करनेकी कामना ‘कामना’ नहीं हैं; क्योंकि वह अपना है । संसारसे प्राप्त वस्तुको संसारकी सेवामें लगा देनेकी कामना ‘कामना’ नहीं है; क्योंकि वह अपना नहीं है । अविनाशी-(सत्-) की कामना ‘कामना’ नहीं है; क्योंकि वह अपना है । संसारसे प्राप्त वस्तुको संसारकी ही सेवामें लगा देनेकी कामना ‘कामना’ नहीं है, अपितु ‘त्याग’ है; क्योंकि विनाशी (असत्) होनेके कारण संसार भी अपना नहीं है और उससे प्राप्त वस्तु भी अपनी नहीं है ।