।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
       पौष कृष्ण द्वादशी, वि.सं.२०७६ सोमवार
   कल्याणका सुगम साधन-कर्मयोग


लोग प्रायः कहा करते हैं कि यदि हम किसी प्रकारकी कामना न करें तो धनादि कोई भी वस्तु प्राप्त नहीं हो सकती । अतः कामना किये बिना हमारा जीवन-निर्वाह कैसे होगा ? यह बात भी बिलकुल निराधार है । वास्तवमें किसी अप्राप्त वस्तुकी प्राप्ति ‘कामना’ के कारण नहीं, अपितु प्राप्त वस्तुके सदुपयोग अर्थात्‌ कर्तव्य-कर्मके कारण होती है । पहलेके सदुपयोगके कारण वर्तमानमें एवं वर्तमानके सदुपयोगके कारण भविष्यमें अप्राप्त वस्तुकी प्राप्ति अवलम्बित है । सदुपयोगका तात्पर्य है‒वर्तमानमें प्राप्त सामग्रीके द्वारा कर्तव्य-कर्मोंका आचरण । यदि वह सदुपयोग निष्कामभावसे किया जाय तो परमात्माकी प्राप्ति एवं सकामभावसे किया जाय तो सांसारिक वस्तुओंकी प्राप्ति हो सकती है ।

धनादि समस्त सांसारिक वस्तुएँ कर्म करनेसे प्राप्त होती हैं । जो वस्तु कर्मके अधीन है, वह कामना करनेसे कैसे प्राप्त हो सकती है ? अतः उसके लिये कामना करना व्यर्थ ही है । इसके अतिरिक्त कामना पूरी हो जानेपर हम उसी अवस्थामें आ जाते हैं, जिससे कामना उत्पन्न होनेसे पूर्व थे । कामना सदा पूरी नहीं होती और कामनाके अनुरूप वस्तु भी सदा रहनेवाली नहीं होती । अतएव कामना करनेसे पराधीनताके सिवा कुछ नहीं मिलता ।

वास्तवमें सांसारिक पदार्थोंकी कामनाके बाद जब वे पदार्थ हमें मिलते हैं तो उनकी प्राप्तिमें हमें सुख प्रतीत होता है । वह सुख उन पदार्थोंकी प्राप्तिसे नहीं हुआ है । यदि पदार्थोंकी प्राप्तिसे सुख होता तो उनके रहते हुए कभी कोई दुःख नहीं होना चाहिये था । कम-से-कम जो पदार्थ कामनाके बाद मिला है, उस पदार्थको लेकर तो दुःख होना ही नहीं चाहिये, किन्तु फिर भी दुःख होता है । इससे यह सिद्ध होता है कि पदार्थ-प्राप्तिके बाद होनेवाला सुख पदार्थ प्राप्तिका सुख नहीं है, अपितु कामना-निवृत्तिका सुख है ।

जैसे, हम धनकी कामना करते हैं तो धनका हमारे मनके साथ घनिष्ठ सम्बन्ध हो जाता है अर्थात्‌ धन हमारे मनके द्वारा पकड़ा जाता है । जब बहारसे धन मिलता है, तब मनसे पकड़ा हुआ धन निकल जाता है और सुखकी प्रतीति होती है । वास्तवमें वह सुख बाहरसे धन मिलनेसे नहीं हुआ है, प्रत्युत मनसे पकड़े हुए धनके निकलनेसे अर्थात्‌ धनकी कामनाका त्याग होनेसे हुआ है । परन्तु मनुष्य भूलसे इस सुखको पदार्थोंकी प्राप्तिसे मिलनेवाला मानकर पुनः नयी-नयी कामनाएँ करने लगता है । इसी कारण वह कामना निवृत्ति अर्थात्‌ निष्कामताको सुरक्षित नहीं रख पाता । अतएव कहा है‒

न जातु कामः कामानामुपभोगेन शम्यति ।
हविषा कृष्णवर्त्मेव    भूय   एवाभिवर्धते ॥
         (श्रीमद्भ. ९/१९/१४; मनु. २/९४)

‘विषयोंके उपभोगसे कामना कभी शान्त नहीं होती, अपितु घीसे अग्निके समान बार-बार अधिक ही बढ़ती जाती है ।’

यदि मनुष्य यह विचार करे कि वास्तवमें सुख तो कामना-निवृत्तिका ही होता है तो फिर उसके जीवनमें कामनाओंका कोई स्थान ही नहीं रहता । कामना-निवृत्ति-(निष्कामता-) में तो मनुष्यमात्र स्वतन्त्र है, क्योंकि इसमें किसी अन्यकी सहायताकी अपेक्षा नहीं है ।

सम्पूर्ण सांसारिक कामनाओंकी पूर्ति करनेकी सामर्थ्य किसीमें भी नहीं है, पर कामनाओंका त्याग करनेकी सामर्थ्य सभीमें है । अतः मनुष्य कामनाओंका सर्वथा त्याग कर सकता है । कामनाओंका सर्वथा त्याग होते ही संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद और परमात्माकी प्राप्ति स्वतः हो जाती है, जो कि नित्य प्राप्त है ।

कामनायुक्त प्रत्येक प्रवृत्ति या कर्म बाँधनेवाला होता है । कामनाका नाश हुए बिना शान्तिकी प्राप्ति सर्वथा असम्भव है । कामना करनेसे लाभ तो कुछ नहीं होता, पर हानि किसी प्रकारकी शेष नहीं रहती । मिली हुई वस्तु-(शरीरादि-) को अपना माननेसे (ममतासे) कामना उत्पन्न होती है । वास्तवमें कामनाका मनुष्यजीवनमें कोई स्थान नहीं है । कामना-रहित होकर दूसरोंके लिये कर्म करनेमें ही मनुष्य-जीवनकी सफलता है । अतएव गीतामें भगवान्‌ मनुष्यमात्रको निष्कामभाव-पूर्वक परहितार्थ कर्म करनेकी आज्ञा देते हैं‒

योगस्थः कुरु  कर्माणि   संगम  त्यक्त्वा  धनञ्जय ।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥
                                             (२/४८)

‘हे धनञ्जय ! तू आसक्तिका त्याग करके सिद्धि और असिद्धिमें समान-बुद्धि होकर योगमें स्थित हुआ कर्तव्य कर्मोंको कर । समत्व ही योग कहलाता है ।’

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!


‒ ‘कल्याण-पथ’ पुस्तकसे