श्रोता‒अपना लक्ष्य परमात्माकी प्राप्ति करना ही
है‒यह कैसे पता लगे ? क्योंकि धन भी प्रापणीय है, मान-बड़ाई भी प्रापणीय है,
सुख-सुविधा भी प्रापणीय है, इस तरह कई चीजें प्राप्त करनेकी हैं । अतः परमात्माकी
प्राप्ति ही करना है‒यह हमें कैसे मालूम हो ?
स्वामीजी‒आपमेंसे कोई भी
क्या ऐसा सुख चाहता है, जो पूरा न हो, अधूरा हो और मिटनेवाला हो ? क्या ऐसा जीवन
कोई चाहता है, जो सदा न रहे, हम कभी रहें और कभी न रहें, मर जायँ ? क्या ऐसी
जानकारी कोई चाहता है, जो अधूरी हो ? हम ऐसा सुख चाहते हैं, जो कभी मिटे नहीं ।
ऐसा जीवन चाहते हैं, जो सदा रहे । ऐसा ज्ञान चाहते हैं, जो सर्वोपरि हो, जिसमें
किंचिन्मात्र भी कमी न रहे । यह चाहना (अभिलाषा)
वास्तवमें परमात्मतत्त्वकी ही है । परमात्मतत्त्वके सिवाय और कोई नित्य रहनेवाला,
परिपूर्ण, सर्वोपरि तत्त्व नहीं है । उस परमात्मतत्त्वकी अभिलाषाको हम सांसारिक तुच्छ इच्छाओंसे दबाते रहते
हैं, और कभी सुखी और कभी दुःखी होते रहते हैं ।
थोड़े सुखसे तो
कुत्ता भी राजी हो जाता है, गधा भी राजी हो जाता है, सुख
तो वह लेना चाहिये, जिसमें किसी तरहकी अपूर्णता न हो, जो पूर्ण हो । जिसमें कोई
कमी न रहे, ऐसा सुख संसार नहीं दे सकता । अतः संसारका सुख हमारा ध्येय नहीं है,
हमारा लक्ष्य नहीं है । आप विचार करें कि जो सदा रहे, अखण्ड रहे, जिसमें
किंचित भी कमी न आये, ऐसा सुख तो एक परमात्मामें ही है । संसारकी कितनी ही वस्तुएँ
मिल जायँ, कितना ही धन, सम्पत्ति, राज्य, वैभव, मान, आदर, सत्कार आदि मिल जाय, पर
उससे तृप्ति नहीं होती, प्रत्युत ‘और मिले’, ‘और मिले’ ऐसी इच्छा रहती है ।
हम जीना चाहते
हैं‒इसका अर्थ यह हुआ कि हम मर रहे हैं, नहीं तो जीनेकी चाहना क्यों होती ? फिर भी
जीनेकी इच्छा रहती है । संसारमें बहुत कुछ जाननेपर भी जाननेकी इच्छा रहती है ।
बहुत कुछ पानेपर भी पानेकी इच्छा रहती है । बहुत कुछ करनेपर भी करनेकी इच्छा रहती
है कि इतना तो कर लिया, इतना और करना है । यह जो जानने,
पाने, करने आदिमें अधूरापन रहता है, कमी रहती है, यह कमी आदमीको खटकनी चाहिये । इस कमीकी पूर्ति संसार
नहीं कर सकता । मात्र संसार मिल जाय तो भी यह कमी पूरी नहीं हो सकती;
क्योंकि संसार कभी टिकता नहीं, प्रतिक्षण बदलता रहता है । परन्तु परमात्माकी
प्राप्ति हो जानेपर क्या होगा, इसके लिये गीताने बताया ‒
यं लब्ध्वा चापरं
लाभं मन्यते नाधिकं ततः ।
(६/२२)
अर्थात् जिस लाभकी
प्राप्ति होनेके बाद ‘उससे बढ़कर कोई लाभ होता है’ यह उसके माननेमें ही नहीं आया,
वह मान ही नहीं सकता, कोई उसको मना भी नहीं सकता, और जिसमें स्थित होनेपर वह बड़े भारी
दुःखसे भी विचलित नहीं किया जा सकता‒‘यस्मिन्स्थितो न दुःखेन
गुरुणापि विचाल्यते ।’ जैसे दो पर्वत आपसमें टकरावें तो उनके बीचमें शरीरको
रख दिया जाय, शरीरके टुकड़े-टुकड़े कर दिये जायँ तो ऐसे दुःखमें भी वह अपने स्वरूपसे
विचलित नहीं होता । यह दुःख वहाँ पहुँचता ही नहीं । इस दुःखका संस्पर्श ही नहीं
होता । सुख तो इतना होता है कि उससे बढ़कर कोई सुख है ही
नहीं और दुःख वहाँ पहुँचता ही नहीं । ऐसा कौन नहीं चाहता, बताओ ? परन्तु अल्पमें संतोष कर लेते हैं, यही बड़ी गलती
होती है ।
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