साधकोंसे
यह बड़ी भूल होती है कि वे साधन करते-करते बीचमें संतोष कर लेते हैं । एक मारवाड़ी
कहावत है‒‘आँधे कुत्ते खोलन ही खीर हैं’ अर्थात्
अन्धे कुत्तेको खोलन (अन्न आदि लगे हुए बरतनोंका धोया हुआ पानी) मिल जाय तो उसके
लिये वही खीर है । ऐसे ही संसारमें थोड़ा धन मिल जाय, मान मिल जाय तो उसीमें राजी
हो जाते हैं ! वास्तवमें मिल क्या गया ? जो मिला है, वह
सब धोखा है । हमारेको तो सर्वोपरि तत्त्व चाहिये । हमारेको धन भी चाहिये तो
सर्वोपरि चाहिये, पद भी चाहिये तो सर्वोपरि चाहिये, मान भी चाहिये तो सर्वोपरि
चाहिये, बड़ाई भी चाहिये तो सर्वोपरि चाहिये, जीवन भी चाहिये तो सर्वोपरि चाहिये,
ज्ञान भी चाहिये तो सर्वोपरि चाहिये‒इस इच्छाको कोई मिटा नहीं सकता और परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिके बिना इस इच्छाको कोई पूरी नहीं कर
सकता, क्योंकि सर्वोपरि तत्त्व एक परमात्मा ही हैं । अर्जुन कहते हैं‒‘न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोऽन्यो लोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभाव’
(गीता ११/४३) । आप ‘अप्रतिमप्रभाव’ हैं
अर्थात् आपके प्रभावकी सीमा नहीं है । आपके समान भी दूसरा कोई नहीं है, फिर अधिक
तो हो ही कैसे सकता है ! ऐसे सर्वोपरि तत्त्वको प्राप्त
करना ही हमारा लक्ष्य होना चाहिये ।
पहले जितने
बड़े-बड़े ऋषि हुए, सन्त हुए, सनकादि एवं नारद आदि हुए, ब्रह्मा, शंकर आदि हुए, उनको
जो तत्त्व मिला, वही तत्त्व आज कलियुगी जीवको भी मिल सकता है । संसारकी वस्तुएँ सबको नहीं मिल सकतीं, पर परमात्मतत्त्व सबको
मिल सकता है । ऐसा कोई मनुष्य नहीं है, जिसको परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति नहीं हो
सकती हो । उस परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति ही मनुष्यजन्मका लक्ष्य है ।
मेरा लक्ष्य परमात्मप्राप्ति है‒ इस बातको
मनुष्य ही समझ सकता है, दूसरा कोई प्राणी नहीं । प्राणियोंमें
गाय बड़ी पवित्र है, पर उसको समझा नहीं सकते । आप थोड़ा-सा विचार करें । आप इतनी
जल्दी यहाँ सत्संगमें आ जाते हैं तो यहाँ धन मिलता है क्या ? भोग मिलता है क्या ? आदर
मिलता है क्या ? यहाँ निरोगता मिलती है क्या ? आपको कौन-सा लाभ मिलता है, बताओ ?
क्यों आते हैं इतनी जल्दी उठ करके ?
श्रोता‒आत्माको शान्ति मिलती है ।
स्वामीजी‒शान्ति पूरी
चाहिये । यहाँ थोड़ी शान्ति मिली और जब यहाँसे चले गये तो फिर वैसी शान्ति नहीं
रही‒यह शान्ति किस कामकी ? हमें ऊँची-से-ऊँची शान्ति चाहिये, जो कभी मिटे नहीं ।
परन्तु भूल यह होती है कि हम तुच्छ शान्तिसे राजी हो
जाते हैं ।
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