मनुष्योंने वस्तुओंको, व्यक्तियोंको बड़ा महत्त्व दे दिया है;
परन्तु वास्तवमें इनका महत्त्व नहीं है । महत्त्व इनके उपयोगका है । इनका सदुपयोग और
दुरुपयोग दोनों हो सकते हैं । अगर सदुपयोग किया जाय तो
हरेक देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति आदि मनुष्यका कल्याण करनेवाली हो
जाती है । सदुपयोग या दुरुपयोग करनेमें मनुष्य स्वतन्त्र है । परिस्थिति आदिको
अपने अनुकूल बनानेमें कोई भी स्वतन्त्र नहीं है ।
प्रायः मनुष्य वस्तुओंको ही ज्यादा महत्त्व देते हैं, उनके
सदुपयोगकी तरफ ध्यान नहीं देते । इस कारण वे परतन्त्र हो जाते हैं, फँस जाते हैं ।
उनके सामने ‘क्या करें ? कैसे करें ?’‒ऐसी विकट परिस्थिति आ जाती है । इससे बचनेके
लिये इस बातको सीखनेकी आवश्यकता है कि उनका सदुपयोग कैसे किया जाय ? परिस्थितियाँ
तो मनुष्यके सामने आती-जाती रहती हैं, बदलती रहती हैं । न तो कोई परिस्थिति एक
समान रहती है, न वस्तुएँ एक समान रहती है, न व्यक्ति एक समान रहते हैं, न अवस्था
एक समान रहती है । ये सब बदलते रहते हैं । अगर इन बदलनेवालोंका अच्छे-से-अच्छा उपयोग
किया जाय तो ये सब कल्याण करनेवाले हो जायँगे ।
सबसे पहले एक बात समझनेकी है । आप और आपकी परिस्थिति, आप और
आपकी वस्तु, आप और आपकी अवस्था, आप और आपका समुदाय, आप और आपका देश, आप और आपका समय‒ये
दोनों अलग-अलग हैं । तात्पर्य है कि उत्पन्न और नष्ट
होनेवाली जितनी चीजें हैं, वे सब प्रकृतिकी अंश हैं और आप परमात्माके अंश हैं । आप
नित्य-निरन्तर रहनेवाले हैं । परन्तु प्रकृतिसे उत्पन्न चीजें नित्य-निरन्तर
बदलनेवाली हैं, कभी एक क्षण भी एकरूप रहनेवाली नहीं हैं । इनका संयोग और वियोग
हरदम होता रहता है । नदीके प्रवाहकी तरह इनका प्रवाह हरदम चलता रहता है ।
आप रहनेवाले हैं‒‘नित्यः सर्वगतः
स्थाणुरचलोऽयं सनातनः’ (गीता २/२४) । आप अनादिकालसे अचल हैं और ये सब
(शरीर, संसार) चल हैं । चल वस्तुओंको लेकर अचलपर असर
क्यों पड़ जाता है ? क्योंकि चल वस्तुओंके साथ अचल अपना सम्बन्ध जोड़ लेता है ।
शरीर और शरीरमें रहनेवाले आप‒ये दो हैं । आप शरीर नहीं है और शरीर आपका नहीं है ।
परन्तु गलती यह हुई कि आपने शरीरमें अहन्ता-ममता कर ली । अपनेको
शरीरमें बैठा दिया तो ‘अहन्ता’ पैदा हो गयी और शरीर आदि वस्तुओंमें अपनेमें बैठा
लिया तो ‘ममता’ पैदा हो गयी । मैं शरीर हूँ‒ऐसा मान लेनेसे अहन्ता पैदा हो जाती है
और शरीर आदि वस्तुएँ मेरी हैं‒ऐसा मान लेनेसे ममता पैदा हो जाती है । अहन्ताको
लेकर भेदभाव होता है और ममताको लेकर संघर्ष होता है । ये दोनों बन्धनकारक हैं ।
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