तो आपका प्रश्न था‒
ईश्वरः सर्वभूतानां
हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति ।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया ॥
(गीता
१८/६१)
सबके हृदयमें ईश्वर विराजमान है और गाड़ीके ड्राइवरकी तरह
सम्पूर्ण प्राणियोंको वही घुमा रहा है ।
अर्थात् मनुष्य स्वयं कुछ नहीं करता, सम्पूर्ण प्राणियोंके द्वारा क्रिया करनेमें
भगवान्का हाथ है ।
तो भगवान्का हाथ कितना है ? कि ‘यन्त्रारूढानि
मायया’‒अर्थात् भगवान् अपनी मायासे मनुष्योंके
कर्मोंके अनुसार उनके यन्त्रको प्रेरित करते हैं । स्फुरणा देते हैं । भगवान् मनुष्यके संचित व प्रारब्ध कर्मोंके अनुसार क्रिया
करनेकी प्रेरणा करते हैं । ईश्वर केवल स्फुरणा देते हैं‒
न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः ।
न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु
प्रवर्तते ॥
(गीता ५/१४)
भगवान् ‘यह काम तुम करो’,
‘इस काममें लग जाओ’‒ऐसी प्ररणा नहीं करते । और यह फल तुम्हें भोगना पड़ेगा, न ही
ऐसी प्रेरणा करते हैं । और तुम कर्ता बन जाओ, यह प्रेरणा भी भगवान् नहीं करते ।
भगवान् क्या करते हैं ? भगवान् केवल
स्फुरणा करते हैं, जिससे सब क्रियाएँ होती हैं । जैसे बिजलीका दृष्टान्त है कि
बिजलीका माइकके साथ सम्बन्ध कर दिया तो आवाज फैलने लगी । हीटरके साथ सम्बन्ध कर
दिया तो गर्मी हो गयी, और बर्फकी मशीनके साथ सम्बन्ध कर दिया तो बर्फ जम गयी ।
बिजली यन्त्रोंको प्रेरणा देती है; परन्तु अमुक यन्त्रसे अमुक काम करा लूँ,
बिजलीका आग्रह नहीं । बिजली निरपेक्ष रहती है, उसकी सत्ता-स्फुरणासे सब क्रियाएँ
होती हैं ।
ऐसे ही भगवान्की सत्ता-स्फूर्तिसे
मनुष्यकी अपने अन्तःकरणके संस्कारोंके अनुसार, स्वभावके अनुसार क्रियाएँ होती हैं
। उसके स्वभावमें कर्तृत्व-अभिमान तथा फलासक्ति मुख्य हैं । यह कर्तृत्व-अभिमान और
फलासक्ति मनुष्य रखे, न रखे, इसमें वह स्वतन्त्र है । कामना रखने, न रखनेमें,
राग-द्वेष रखने और न रखने (अर्थात् मिटाने) में मनुष्य स्वतन्त्र है । परन्तु जब यह कर्तृत्व-अभिमान, फलासक्ति, कामना, राग-द्वेष आदि रखता
है तो यह उनमें यन्त्रारूढ हो जाता है तो करनेमें परतन्त्र हो जाता है ।
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