इस वास्ते अर्जुनने पूछा‒
‘अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुषः ।
अनिच्छन्नपि....’ न चाहता हुआ
भी पुरुष पापका आचरण क्यों करता है ? तो भगवान्ने उत्तर दिया‒‘काम एष’‒ यह जो कामना है कि
यह मिलना चाहिये, यह नहीं मिलना चाहिये, यह होना चाहिये, यह नहीं होना चाहिये‒यह
सम्पूर्ण पापोंकी, अनर्थोंकी जड़ है । यह भी कामना है कि कामिनी, कंचन,
कीर्ति मिले । परन्तु कामनाका मूल है कि मेरे मनके अनुकूल बात हो जाय और मेरे मनके प्रतिकूल न
हो ।
जबतक कामना रहेगी, तबतक मनुष्य परतन्त्र रहेगा, परवश रहेगा
। और इस कामनाके रखने-मिटानेमें हम बिलकुल स्वतन्त्र हैं
।
इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ ।
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ ॥
(गीता
३/३४)
इन्द्रियोंमें राग-द्वेष छिपे हैं, उन दोनोंके वशमें न होवे
। यदि राग-द्वेषके कहनेमें चलेगा तो राग-द्वेषको पुष्टि मिलेगी परन्तु राग-द्वेषके
वशीभूत न होनेसे राग-द्वेष मिट जायँगे । अतः राग-द्वेषके वशीभूत न होनेकी बात
बतायी । तो राग-द्वेषको मिटाकर यन्त्रको शुद्ध कर लो ।
और एक दूसरा उपाय बताया‒‘तमेव शरणं
गच्छ’‒कि जो ईश्वर सम्पूर्ण प्राणियोंको घुमाता है, उसकी शरण जा । शरण
जानेपर क्या होगा ? भगवान् कहते हैं‒
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु ।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ॥
(गीता १८/६५)
ऐसे भगवान्की शरण होनेपर सब कुछ ठीक हो जायगा और भगवान्को
ही प्राप्त होगा । अतः उपाय हुआ कि चाहे तो राग-द्वेषको
मिटाकर यन्त्रको शुद्ध कर लो या भगवान्की शरण हो जाओ ।
अतः जीव जबतक कर्तृत्व-अभिमानपूर्वक अपने मनके अनुसार कार्य
करेगा तो उसका फल उसे भोगना पड़ेगा और दुःख पाना पड़ेगा ।
इस वास्ते यह सोचना है कि हम जो करते हैं ईश्वर-प्रेरणासे
करते हैं, गलत है । हम जैसा कर्म करते हैं, हमें उसके अनुसार फल भोगना पड़ेगा । यह
भगवान्का विधान है कि ऐसा करोगे तो ऐसा फल होगा । अतः करनेमें
सदा सावधान रहें और जो होता है, उसमें प्रसन्न रहें कि सब हमारे प्रभुके विधानके
अनुसार होता है ।
नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
‒ ‘जीवनका सत्य’ पुस्तकसे
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