गीतामें भगवान्ने कहा है‒
भूमिरापोऽनलो वायु खं
मनो बुद्धिरेव च ।
अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ॥
अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम् ।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत् ॥
(७/४-५)
‘पृथ्वी, जल,
तेज, वायु, आकाश ‒ ये पंचमहाभूत और मन, बुद्धि तथा अहंकार‒यह आठ प्रकारके भेदोंवाली मेरी अपरा प्रकृति है । हे महाबाहो ! इस अपरा प्रकृतिसे
भिन्न जीवरूप बनी हुई मेरी परा प्रकृतिको जान, जिसके द्वारा यह जगत् धारण किया जाता है ।’
सृष्टिमात्रमें इन आठ चीजोंके सिवाय कुछ नहीं है । ये आठों
परमात्माकी प्रकृति (स्वभाव) होनेसे परमात्माका ही स्वरूप हैं । पंचमहाभूतोंसे बना
हुआ शरीर और मन, बुद्धि तथा अहंकार भी भगवान्के ही हुए । इनको हम अपना मान लेते हैं‒यही गलती है । जीव भी परमात्माकी प्रकृति
होनेसे परमात्माका ही स्वरूप हुआ । आप विचार करें, आठ प्रकारकी अपरा प्रकृति, जीव
और परमात्मा‒इन दसके सिवाय और क्या है ? सब कुछ परमात्मा ही हुए‒‘सब जग ईश्वररूप है’, ‘वासुदेवः सर्वम्’ (गीता ७/१९) ।
शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि सब-के-सब
परमात्माके हैं । इनको अपना मानकर ही हम बन्धनमें पड़े हैं । इनको अपना मत मानो तो
आपको बन्धन बिलकुल नहीं होगा । आप मनको सर्वथा भगवान्का ही मान लो तो मनके विकार आपको नहीं लगेंगे । मनके
सुख-दुःख आपको नहीं लगेंगे । जब सब कुछ भगवान्का ही है, आपका कुछ है ही नहीं, फिर
आपका किससे क्या लेना-देना ? आपका काम यही है कि भगवान्की प्रकृतिको अपना मत मानो
। मनको अपना मत मानो, बुद्धिको अपना मत मानो, अहंकारको अपना मत मानो । यह काम आप
चाहे अभी करो, चाहे वर्षोंके बाद अथवा जन्मोंके बाद करो ! इन वस्तुओंको अपना मानते
ही आपपर आफत आयेगी ! नहीं तो कुत्तेके मनका विकार आपको लगता है क्या ? मनको अपना
मानते ही विकार लगता है । इतनी ही बात आपको समझनी है ! मैं आपको यही बात कहना चाहता हूँ
कि सम्पूर्ण जगत् परमात्माका स्वरूप है । इसलिये शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि और अहंकारको आप अपना मत मानो
। इनको भगवान्को अर्पित करनेमें क्या बाधा है ? किंचिन्मात्र भी
बाधा नहीं है; क्योंकि सब वस्तुएँ हैं ही भगवान्की । उनको अपना मानना ही गलती है,
जिसके फलस्वरूप पाप-पुण्य तथा जन्म-मरण होते हैं । उनको
अपना मत मानो तो कोई बन्धन नहीं रहेगा, कल्याण हो जायगा ।
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