जैसे आप हिसाब सिखते हो तो उस हिसाबका गुर सीख लेते हो तो
वह हिसाब सुगमतासे हो जाता है । ऐसे ही हरेक प्रश्नका एक गुर होता हैं उसको आपलोग
सीख लो तो प्रश्नका उत्तर स्वतः आ जायगा ।
प्रश्न आया है कि हम क्रोधपर विजय कैसे पावें ? तो क्रोध
पैदा किससे होता है ? गीताने कहा—‘कामसे ही क्रोध पैदा
होता है—‘कामात्क्रोधोऽभिजायते ।’ (२/६२) वह काम (कामना) क्या है ? मनुष्यने समझ रखा है कि ‘धन,
सम्पत्ति, वैभव आदिकी कामना होती है’—ये भी सब कामना ही है, पर मूल—असली कामना क्या है ? ‘ऐसा होना चाहिये और ऐसा नहीं होना चाहिये’—यह
जो भीतरकी भावना है, इसका नाम कामना है ।
आप पहले यह पकड़ लेते हो कि ‘ऐसा होना ही चाहिये’ और वह नहीं
होगा तो क्रोध आ जायगा । ‘ऐसा नहीं होना चाहिये’ और कोई वैसा करेगा या उससे विपरीत
करेगा तो क्रोध आ जायगा । ऐसा होना चाहिये और
ऐसा नहीं होना चाहिये—यही क्रोधका खास कारण है ।
ऐसा होना चाहिये और ऐसा नहीं होना चाहिये—इस कामनामें
कोई फायदा नहीं है; क्योंकि दुनियामात्र हमसे पूछकर करेगी क्या ? हमारे मनके
अनुसार ही करेगी क्या ? आप अपनी
स्त्री, पुत्र, अपने नौकर आदिसे चाहते हैं कि
ये हमारा कहना करें तो क्या उनके मनमें नहीं हैं ? ऐसा करूँ और ऐसा न करूँ—ऐसा
उनके मनमें नहीं है क्या ? अगर उनका मन इससे रहित है, तब तो आप कहें, वैसा
वे कर देंगे, पर उनके मनमें भी तो ‘ऐसा करूँ और ऐसा न करूँ’ ऐसी दो बातें पड़ी हैं
तो वे आपकी ही कैसे मान लें ? आपकी ही वे मान लें तो फिर आप भी उनकी मान लो । जब
आप भी उनकी माननेके लिये तैयार नहीं है तो फिर अपनी बात मनवानेका आपको क्या अधिकार
है ? इसलिये ‘ऐसा होना चाहिये और ऐसा नहीं होना चाहिये’—यह
भाव मनमें आ जाय तो ‘ये ऐसा ही करें’, अपना यह आग्रह छोड़ दो । इस आग्रहमें अपना
अभिमान अर्थात् मैं बड़ा हूँ, इनको मेरी बात माननी चाहिये—यह बड़प्पनका अभिमान ही
खास कारण है और वैसा न करनेसे अभिमान ही क्रोधरूपसे हो जाता है ।
अगर आप शान्ति चाहते हो तो अभिमान मिटाओ; क्योंकि
अभिमान सम्पूर्ण आसुरी सम्पत्तिका मूल है । अभिमानरूप बहड़ेकी छायामें आसुरी सम्पत्तिरूप कलियुग रहता है । आसुरी
सम्पत्तिके क्रोध, लोभ,मोह, मद, इर्षा, दम्भ, पाखण्ड आदि जितने अवगुण हैं, वे सब
अभिमानके आश्रित रहते हैं, क्योंकि अभिमान उनका राजा है । उसको आप छोड़ते नहीं तो
क्रोध कैसे छूट जायगा ! इसलिये उस अभिमानको छोड़ दो ।
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