प्रश्न–हमारा
स्वरूप अहम् (मैंपन) से रहित है–इसका अनुभव कैसे करें ?
उत्तर–सत्तामात्र
अर्थात्
केवल होनापन ही हमारा स्वरूप है । इस सत्तामात्रके सिवाय और सबका अभाव है । जितना देखने, सुनने और समझनेंमें आता है तथा जिन यन्त्रों
(शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि)-से देखते, सुनते और समझते हैं एवं देखना, सुनना और
समझना–ये सब-के-सब क्षणभंगुर हैं अर्थात् इनकी एक क्षण भी सत्ता (अस्तित्व) नहीं
है । परन्तु स्वतःसिद्ध सत्ताका क्षणमात्र भी कभी अभाव
हुआ नहीं, है नहीं, होगा नहीं और हो सकता नहीं ।
अपना जो होनापन
(स्वरूप) है, उसमें ‘मैं’ नहीं है और जो ‘मैं’ है, उसमें होनापन नहीं है । जितने
भी विकार हैं, सब मैंपनमें ही हैं, स्वरूपमें नहीं । सत्तारूप होनेसे स्वरूपमें
स्वतः निर्लिप्तता है । इस
स्वतःसिद्ध सत्ता (स्वरूप)-में कभी कोई विकार हुआ नहीं, है नहीं, होगा नहीं और हो
सकता नहीं । मैंपनका नित्य-निरन्तर विकारी रहनेका स्वभाव
है और स्वरूपका नित्य-निरन्तर निर्विकार रहनेका स्वभाव है । स्वतःसिद्ध
सत्तामें न कर्तृत्व है, न भोक्तृत्व है–‘न करोति न
लिप्यते’ (गीता १३/३१); न करना है, न
करवाना है–‘नैव कुर्वन्न कारयन्’ (गीता ५/१३) ।
गीतामें भगवान् ने कहा है–
भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च ।
अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ॥
(गीता ७/४)
‘पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश–ये पञ्चमहाभूत और मन, बुद्धि
तथा अहंकार–यह आठ प्रकारके भेदोंवाली मेरी अपरा प्रकृति है ।’
तात्पर्य है कि पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और
अहम्–ये सब एक ही जातिके (अपरा) हैं । अतः जिस जातिकी पृथ्वी है, उसी जातिका अहम्
(मैंपन) है अर्थात् मिट्टीके ढेलेकी तरह मैंपन भी जड़ और दृश्य है । जैसे पदार्थ दृश्य हैं, ऐसे यह मैंपन भी दृश्य है अर्थात्
पदार्थोंकी तरह यह मैंपन भी जाननेमें आनेवाला है । हमारा स्वरूप अहम्से
अलग है–इसका लक्ष्य करानेके लिये एक बात कही जाती है ।
सुषुप्ति (गाढ़ नींद)-से जगनेपर हम कहते हैं कि
मैं ऐसे सुखसे सोया कि मेरेको कुछ पता नहीं था । पता इसलिये नहीं था कि उस समय
अहम् नहीं था अर्थात् अहम् अविद्यामें लीन हो गया था । परन्तु हम तो उस समय थे ही ।
अगर हम न होते तो ‘कुछ भी पता नहीं था’–इसका
पता किसको लगता ? जगनेके बाद कौन कहता कि मेरेको कुछ भी पता नहीं था ? पता
लगानेवाला जो अहंभाव था, वह तो नहीं था, पर हम तो थे ही । जैसे, एक घरमें कोई आदमी है । बाहरसे कोई आवाज देता है कि
क्या घरमें अमुक आदमी है ? तो वह घरके भीतरसे कहता है कि घरमें नहीं है, तो क्या
‘घरमें नहीं है’–ऐसा बोलनेवाला भी नहीं है ? अगर घरमें कोई नहीं होता तो कौन कहता
कि वह घरमें नहीं है ? बोलनेवाला तो है ही । इस तरह सुषुप्तिमें ‘मेरे को कुछ भी
पता नहीं था’–इसको जाननेवाला तो था ही । तात्पर्य है कि सुषुप्तिमें मैंपन तो नहीं
रहता, पर अपना होनापन रहता है अर्थात् सुषुप्तिमें मैंपनसे रहित अपनी सत्ता सिद्ध
होती है ।
हम मैंपनके भाव और अभाव दोनोंको जाननेवाले हैं । मैंपनका अभाव होता है, पर हमारा अभाव
नहीं होता । सब संसार मिट जाय तो भी हमारी सत्ता रहती है । अतः सत्ता (होनापन)
हमारा स्वरूप है । मैंपन हमारा स्वरूप नहीं है ।
नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
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