।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
ज्येष्ठ कृष्ण चतुर्थी, वि.सं.२०७७ सोमवार
सबके अनुभवकी बात



किसी वस्तुकी प्राप्तिके लिये एक ‘निर्माण’ होता है और एक ‘अन्वेषण’ होता है । सांसारिक वस्तुओंका तो निर्माण होता है और परमात्मतत्त्वका अन्वेषण होता है । कारण कि निर्माण तो उस वस्तुका होता है, जो अभी विद्यमान नहीं है, पर अन्वेषण उस वस्तुका होता है, जो पहलेसे ही विद्यमान है । नयी वस्तुके निर्माणमें देरी लगती है और अभ्यास, प्रयत्न करना पड़ता है । परन्तु जो पहलेसे ही विद्यमान है, उसकी प्राप्ति तत्काल होती है; क्योंकि वह स्वतःसिद्ध है । अतः उसकी प्राप्तिके लिये अभ्यास करनेकी आवश्यकता नहीं है, प्रत्युत केवल उधर दृष्टि डालनेकी आवश्यकता है । उधर दृष्टि गयी और प्राप्ति हुई !

गीतामें आया है‒

अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः     ।
शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते ॥
                                                                 (गीता १३/३१)

‘अनादि और निर्गुण होनेसे यह अविनाशी आत्मतत्त्व शरीरमें रहता हुआ भी न करता है और न लिप्त होता है ।’ तात्पर्य है कि इसको कर्तृत्व और भोक्तृत्व (लिप्तता )-का अभाव करना नहीं पड़ता, प्रत्युत इसमें अकर्तृत्व और निर्लिप्तता स्वतःसिद्ध है । अपनेको शरीरमें स्थित माननेपर भी यह कर्ता और भोक्ता नहीं बनता । जिस समय यह अपनेको शरीरमें स्थित देखता तथा मानता है, उस समय भी वास्तवमें यह शरीरमें स्थित नहीं है । कारण कि जैसे सूर्यका अमावस्याके साथ संयोग नहीं हो सकता, ऐसे ही चेतनतत्त्वका जड शरीरके साथ संयोग नहीं हो सकता । अतः जडके साथ संयोग (शरीरमें स्थिति) केवल चेतनकी मान्यता है । मान्यताके सिवाय और कुछ नहीं है ! अपनेमें कर्तृत्व और भोक्तृत्वकी केवल मान्यता है । मान्यता छूटी और प्राप्ति हुई ! मान्यताको छोड़नेके लिये क्रिया (करने)-की जरुरत नहीं है, प्रत्युत भाव (मानने) और बोध (जानने)-की जरुरत है ।

       क्रिया करनेसे जो अनुभव होगा, वह तत्त्वका अनुभव नहीं होगा; क्योंकि क्रिया करनेसे उत्पन्न हुई वस्तुके साथ ही संयोग होता है, अनुत्पन्न तत्त्वका अनुभव नहीं होता । अनुत्पन्न तत्त्वका अनुभव क्रियाओंसे असंग होनेपर ही होगा । क्रियासे अर्थात् अभ्याससे तत्त्वज्ञान नहीं होता, प्रत्युत एक नयी अवस्था बनती है । जैसे, रस्सेपर चलना हो तो अभ्यास करेंगे, तब चल सकेंगे, नहीं तो गिर जायँगे । दूसरी बात, अभ्यास करेंगे तो पहलेवाले अभ्यासको रद्दी करके ही करेंगे । योगदर्शनमें आया है–‘तत्र स्थितौ यत्नोऽभ्यासः’ (१/१३) ‘किसी एक विषयमें स्थिरता प्राप्त करनेके लिये बार-बार प्रयत्न करने का नाम अभ्यास है ।’ अतः यदि प्रयत्न करेंगे तो पहला प्रयत्न रद्दी करेंगे, तभी दूसरा प्रयत्न करेंगे । दूसरा प्रयत्न रद्दी करेंगे, तभी तीसरा प्रयत्न करेंगे । तात्पर्य है कि जब हम अपने ज्ञानको रद्दी करते है, तभी अभ्यासकी जरुरत पड़ती है, नहीं तो अभ्यासकी क्या जरुरत है ?