किसी वस्तुकी प्राप्तिके लिये एक ‘निर्माण’ होता है और एक ‘अन्वेषण’ होता है ।
सांसारिक वस्तुओंका तो निर्माण होता है और परमात्मतत्त्वका
अन्वेषण होता है । कारण कि निर्माण तो उस वस्तुका होता है, जो अभी विद्यमान
नहीं है, पर अन्वेषण उस वस्तुका होता है, जो पहलेसे ही विद्यमान है । नयी वस्तुके
निर्माणमें देरी लगती है और अभ्यास, प्रयत्न करना पड़ता है । परन्तु जो पहलेसे ही विद्यमान है,
उसकी प्राप्ति तत्काल होती है; क्योंकि वह स्वतःसिद्ध है । अतः उसकी प्राप्तिके
लिये अभ्यास करनेकी आवश्यकता नहीं है, प्रत्युत केवल उधर दृष्टि डालनेकी आवश्यकता
है । उधर दृष्टि गयी और प्राप्ति हुई !
गीतामें आया है‒
अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः ।
शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते ॥
(गीता
१३/३१)
‘अनादि और निर्गुण होनेसे यह अविनाशी आत्मतत्त्व शरीरमें
रहता हुआ भी न करता है और न लिप्त होता है ।’ तात्पर्य है कि इसको कर्तृत्व और भोक्तृत्व (लिप्तता )-का
अभाव करना नहीं पड़ता, प्रत्युत इसमें अकर्तृत्व और निर्लिप्तता स्वतःसिद्ध है । अपनेको शरीरमें स्थित माननेपर भी यह कर्ता और भोक्ता नहीं बनता
। जिस समय यह अपनेको शरीरमें स्थित देखता तथा मानता है, उस समय भी
वास्तवमें यह शरीरमें स्थित नहीं है । कारण कि जैसे सूर्यका अमावस्याके साथ संयोग
नहीं हो सकता, ऐसे ही चेतनतत्त्वका जड शरीरके साथ संयोग नहीं हो सकता । अतः जडके साथ संयोग (शरीरमें स्थिति) केवल चेतनकी मान्यता है ।
मान्यताके सिवाय और कुछ नहीं है ! अपनेमें कर्तृत्व और भोक्तृत्वकी केवल मान्यता है ।
मान्यता छूटी और प्राप्ति हुई ! मान्यताको छोड़नेके लिये क्रिया (करने)-की
जरुरत नहीं है, प्रत्युत भाव (मानने) और बोध (जानने)-की जरुरत है ।
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