साधनभेदसे
कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग–ये तीन भेद भी
अहंकारके कारण ही होते हैं । साधक ज्यों-ज्यों साधनमें आगे बढ़ता है, त्यों-त्यों अहंकार मिटता जाता है और
ज्यों-ज्यों अहंकार मिटता जाता है, त्यों-त्यों कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोगका
भेद भी मिटता जाता है । कर्मयोगमें अहंकारके रहते हुए भी साधन किया जा सकता है, जो
कर्मयोग सिद्ध होनेपर मिट जाता है । ज्ञानयोगमें अहंकार
ब्रह्मके साथ मिल जाता है । भक्तियोगमें अहंकार भगवान्के अर्पित हो जाता है । तात्पर्य
है कि कर्मयोगमें अहम् शुद्ध होता है, ज्ञानयोगमें अहम् मिटता है और भक्तियोगमें
अहम् बदलता है । अहम्का शुद्ध होना, मिटना और
बदलना–ये तीनों परिणाममें एक हो जाते हैं ।
कर्मयोग भौतिक साधना है, ज्ञानयोग
आध्यात्मिक साधना है और भक्तियोग आस्तिक साधना है । भौतिक साधनामें ‘अकर्म’ की
मुख्यता रहती है, आध्यात्मिक साधनामें ‘आत्मा’ की मुख्यता रहती है और आस्तिक
साधनामें ‘परमात्मा’ की मुख्यता रहती है । इसलिये कर्मयोगी सम्पूर्ण कर्मोंमें एक अकर्मको देखता है–‘कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः’ (गीता ४/१८);
ज्ञानयोगी सम्पूर्ण प्राणियोंमें एक आत्माको देखता है–‘सर्वभूतस्थमात्मानं
सर्वभूतानि चात्मनि’ (गीता ६/२९); और भक्तियोगी सबमें एक परमात्माको देखता
है अर्थात् अनुभव करता है–‘यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च
मयि पश्यति’ (गीता ६/३०) । अकर्म, आत्मा तथा
परमात्मा–तीनों तत्वसे एक ही हैं । अतः ‘अकर्म’ में आत्मा भी है और
परमात्मा भी है, ‘आत्मा’ में अकर्म भी है और परमात्मा भी है तथा ‘परमात्मा’ में
अकर्म भी है और आत्मा भी है । तात्पर्य है कि अहंकारके कारण अकर्म, आत्मा और परमात्मा–ये तीन भेद होते हैं । तत्वमें ये तीन भेद
नहीं हैं ।
अकर्मका अनुभव करनेसे कर्मयोगी कृत-कृत्य हो जाता है अर्थात्
उसके लिये कुछ करना शेष नहीं रहता । आत्माका अनुभव करनेसे ज्ञानयोगी ज्ञात-ज्ञातव्य
हो जाता है अर्थात् उसके लिये कुछ जानना शेष नहीं रहता । परमात्माका अनुभव करनेसे
भक्तियोगी प्राप्त-प्राप्तव्य हो जाता है अर्थात् उसके लिये कुछ पाना शेष नहीं
रहता ।
कृत-कृत्य होनेसे कर्मयोगी ज्ञात-ज्ञातव्य और प्राप्त-प्राप्तव्य भी हो जाता
है, ज्ञात-ज्ञातव्य होनेसे ज्ञानयोगी कृत-कृत्य और प्राप्त-प्राप्तव्य भी हो जाता
है तथा प्राप्त-प्राप्तव्य होनेसे भक्तियोगी कृत-कृत्य और ज्ञात-ज्ञातव्य भी हो
जाता है । कृत-कृत्य, ज्ञात-ज्ञातव्य
और प्राप्त-प्राप्तव्य होनेसे तादात्म्यवाला अहंकार सर्वथा नष्ट हो जाता है और तत्त्व
रह जाता है अर्थात् अनुभवमें आ जाता है । फिर साधकोंके साधनोंका भेद नहीं रहता ।
साधक साधन होकर साध्य हो जाता है ।
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