जब मनुष्यमें भोग भोगने और संग्रह करनेकी
प्रवृति अधिक हो जाती है, तब उसमें स्वार्थ और अभिमान आ जाते हैं, जो कि आसुरी
सम्पत्ति है । स्वार्थ और
अभिमान आनेसे उसका अहंकार आसुरी सम्पत्तिवाला हो जाता है–‘अहंकारं
बलं दर्पं कामं क्रोधं च संश्रिताः’ (गीता १६/१८); ‘दम्भाहङ्कारसंयुक्ताः’ (गीता
१७/५) । आसुरी सम्पत्तिवाला अहंकार भयंकर नरकोंमें ले जाता है–‘पतन्ति नरकेऽशुचौ’ (गीता १६/१६) ।
अगर ऐसा मानें कि ज्ञान (मुक्ति) होनेपर आसुरी सम्पत्तिवाला
अहंकार ही मिटता है, तादात्म्यरूप अहंकार नहीं मिटता तो यह मान्यता ठीक नहीं है ।
कारण कि आसुरी सम्पत्तिवाला अहंकार मिटनेसे नरकोंसे तो रक्षा होती है, पर मुक्ति
नहीं होती । मुक्ति तो तादात्म्यरूप अहंकार मिटनेसे ही
होती है । आसुरी सम्पत्तिवाला अहंकार तो
तादात्म्यरूप अहंकारका ही स्थूल रूप है, जो जीवमात्रमें रहता है । इसी
तादात्म्यरूप अहंकारको लक्ष्य करके भगवान् अर्जुनसे कहते हैं–‘अथ चेत्त्वम् अहंकारात् न् श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि’ (गीता
१८/५८); ‘यदहङ्कारमाश्रित्य न् योत्स्य इति मन्यसे’ (गीता १८/५९) ।
अहंकारकी उत्त्पत्ति अविद्यासे होती है–‘अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः क्लेशाः अविद्या
क्षेत्रमुत्तरेषा¨¨¨¨¨¨’ (योगदर्शन २/३-४) । ज्ञान होनेपर अविद्याका नाश हो जाता है । जब
अविद्या नहीं रहेगी, तो फिर अविद्यासे होनेवाला अहंकार कैसे रहेगा ? जिस ज्ञानसे
अविद्या न मिटे, वह ज्ञान कैसा ? वह तो सीखा हुआ ज्ञान है, अनुभव किया हुआ ज्ञान
नहीं । अगर तादात्म्यरूप अहंकार नहीं मिटेगा तो जैसे बीजसे वृक्ष पैदा हो
जाता है, ऐसे ही प्राकृत पदार्थ, व्यक्ति, क्रिया, परिस्थिति आदिका संग पाकर वह
अहंकार भी आसुरी सम्पत्तिवाला हो जायेगा ।
गीतामें जहाँ
ज्ञानके साधनोंका वर्णन हुआ है, वहाँ भगवान्ने अहंकारसे रहित होनेकी बात कही है–‘अनहङकार एव च’ (गीता १३/८) । जब साधकमें भी यह अहंकार दूर हो सकता है तो फिर
सिद्ध होनेपर यह कैसे रहेगा ? सिद्ध होनेपर तो तादात्म्यरूप अहंकारका सर्वथा नाश
हो जाता है । भगवान्ने कर्मयोगमें ‘निर्ममो
निरहंकारः’ (गीता २/७१) पदोंसे, ज्ञानयोगमें ‘अहंकार¨¨¨विमुच्य
निर्ममः’ (गीता १८/५३) पदोंसे और भक्तियोगमें ‘निर्ममो
निरहंकारः’ (गीता १२/१३) पदोंसे तादात्म्यरूप अहंकारके नाशकी ही बात कही है
।
२. पारमार्थिक अहंकार
जब मनुष्यका उद्देश्य केवल सत्-तत्वको प्राप्त करनेका हो
जाता है, तब वह उसकी प्राप्तिके लिये ‘मैं साधक हूँ’–इस पारमार्थिक अहंकारको लेकर
साधन करता है । ‘मैं साधक हूँ’–यह अहंकार मुक्त्त
करनेवाला है[1] । अहम्में बैठी हुई बात निरन्तर रहती है । अतः ‘मैं साधक हूँ’–ऐसा अहंकार दृढ़
होनेपर साधकके द्वारा निरन्तर साधन होता है ।
साधन करते समय तो वह साधक रहता ही है, सांसारिक
कार्य करते समय भी वह साधक ही रहता है । इसीलिए वह जो भी सांसारिक कार्य करता है, वह अपने साधनके अनुरूप ही करता है ।
जैसे लोभी आदमी ऐसा कोई
कार्य नहीं करता, जिससे धनका नाश हो, ऐसे ही वह साधक अपने साधनसे विरुद्ध कोई
कार्य नहीं करता ।
साधककी साधनसे और साधनकी साध्यसे एकता होती है । इसीलिए जबतक साधक साधनमें तल्लीन नहीं होता, तबतक साध्य
(परमात्मतत्व)-की प्राप्ति नहीं होती । जबतक साधकमें अहंकार रहता है, तबतक वह
साधनमें तल्लीन नहीं होता । अहंकार मिटनेपर साधक साधनमें
तल्लीन हो जाता है अर्थात् साधक नहीं रहता, प्रत्युत साधनमात्र रह जाता है ।
साधनमात्र रहते ही साधन साध्यमें परिणत हो जाता है अर्थात् साध्यकी प्राप्ति हो
जाति है ।
‘दासोऽहं कौशलेन्द्रस्य’–यह पारमार्थिक अहंकार है । वास्तवमें यह अहंकार नहीं है, प्रत्युत भगवान्पर
दृढ़ विश्वास है और तादात्म्यरूप अहंकारका नाश करके मुक्ति देनेवाला है । |