।। श्रीहरिः ।।


       आजकी शुभ तिथि–
भाद्रपद कृष्ण षष्ठीवि.सं.२०७७सोमवार
शीतला सातम
अपने प्रभुको कैसे पहचानें ?


जैसे हमें ‘मैं हूँ’–इस प्रकार अपने होनेपनका स्पष्ट अनुभव होता है, इसमें कभी किंचिन्मात्र भी सन्देह नहीं होता, ऐसे ही ‘सब कुछ परमात्मा ही हैं’–इसका स्पष्ट अनुभव होना चाहिये । ऐसा अनुभव होनेपर संसारका राग, सुखासक्ति सर्वथा मिट जाती है और संसार संसाररूपसे रहता ही नहीं, प्रत्युत भगवत्स्वरूप ही हो जाता है । मैं-तू-यह-वह कुछ नहीं रहता, केवल भगवान्‌-ही-भगवान्‌ रहते हैं; क्योंकि वास्तवमें भगवान्‌ ही हैं । ऐसा अनुभव करनेके लिये भगवान्‌में अपनी स्थिति नहीं करनी है, प्रत्युत अपने-आपको भगवान्‌के समर्पित कर देना है । अगर उसमें अपनी स्थित करेंगे तो अहम् (स्थिति करनेवाला) बना रहेगा । इसलिए ‘वासुदेवः सर्वम्’ का अनुभव करनेमें शरणागति मुख्य है । शरणागतिमें साधक पहले भगवान्‌के आश्रित होता है, फिर उसीमें मिल जाता है । जैसे, पहले कन्याका विवाह होता है, फिर वह अपने गोत्रको छोड़कर पतिके गोत्रवाली हो जाती है । ऐसे ही पहले भक्त ‘मैं भगवान्‌का हूँ और भगवान्‌ मेरे हैं’–इस प्रकार भगवान्‌के आश्रित होता है, फिर उसके शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि-अहम् सब भगवान्‌में लीन हो जाते हैं अर्थात् केवल भगवान्‌-ही-भगवान्‌ रह जाते हैं । दूसरे शब्दोंमें, पहले साधक ‘मैं’ और ‘मेरा’ को छोड़कर ‘तू’ और ‘तेरा’ को स्वीकार करता है, फिर केवल तू-ही-तू रहा जाता है । यही ‘वासुदेवः सर्वम्’ है ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

–‘सब जग ईश्वररूप है’ पुस्तकसे

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अमृत-बिन्दु

संसारसे सर्वथा राग हटते ही भगवान्‌में अनुराग (प्रेम) हो जाता है ।

जो अपनी चीज होती है, वह सदा अपनेको प्यारी लगती है । अतः एकमात्र भगवान्‌को अपना मान लेनेपर भगवान्‌में प्रेम प्रकट हो जाता है ।

कितने आश्चर्यकी बात है कि जो नित्य-निरन्तर विद्यमान रहता है, वह (परमात्मा) तो प्रिय नहीं लगता, पर जो नित्य-निरन्तर बदल रहा है, वह (संसार) प्रिय लगता है ।

जबतक संसारमें आसक्ति है, तबतक भगवान्‌में असली प्रेम नहीं है ।

संसारकी सुखासक्ति ही भगवत्प्रेममें खास बाधक है । अगर सुखासक्तिका त्याग कर दिया जाय तो भगवान्‌में प्रेम स्वतः जाग्रत हो जायगा ।

जबतक नाशवान्‌में खिंचाव रहेगा, तबतक साधन करते हुए भी अविनाशीकी तरफ खिंचाव (प्रेम) और उसका अनुभव नहीं होगा ।

भगवान्‌में अनन्यप्रेमका नाम राधातत्त्व है । जबतक संसारमें आकर्षण रहता है, तबतक राधातत्त्व अनुभवमें नहीं आता ।

भगवान्‌में प्रेम होनेके समान कोई भजन नहीं है ।

जबतक साधक अपने मनकी बात पूरी करना चाहेगा, तबतक उसका न सगुणमें प्रेम होगा, न निर्गुणमें ।


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