एक बाबाजी कहीं जा रहे थे । रास्तेमें एक खेत आया । बाबाजी वहाँ लघुशंकाके
लिये (पेशाब करने) बैठ गये । पीछेसे खेतके मालिकने उनको देखा तो समझा कि हमारे
खेतमेंसे मतीरा चुराकर ले जानेवाला यही है; क्योंकि खेतमेंसे मतीरोंकी चोरी हुआ करती
थी । उसने पीछेसे आकर बाबाजीके सिरपर लाठी मारी और बोला–‘हमारे खेतसे मतीरा चुराता
है ?’ बाबाजी बोले–‘भाई ! मैं तो लघुशंका कर रहा था !’ कृषकने बाबाजीको देखा तो
बहुत दुःखी हुआ और बोला–‘महाराज ! मेरेसे बड़ा कसूर हो गया ! मैं समझा था कि मतीरा
चुरानेवाला है ।’ बाबाजी बोले–‘कसूर तेरा है ही नहीं;
क्योंकि तुने तो चोरको मारा है, मेरेको थोड़े ही मारा है ! क्या तुने साधू समझकर
मारा है ?’ कृषक बोला–‘नहीं महाराज ! चोर समझकर मारा है । अब मैं क्या करूँ
?’ बाबाजी बोले–‘जिससे तेरी प्रसन्नता हो वह कर ।’
बाबाजीके सिरमें लाठी लगनेसे रक्त निकल रहा था और पीड़ा हो रही थी । कृषक उनको गाड़ीपर
बैठाकर अस्पताल ले गया और वहाँ भरती कर दिया । वहाँ उनकी मरहम-पट्टी करके उनको
सुला दिया । थोड़ी देर बाद एक नौकर दूध लेकर आया और बाबाजीसे बोला–‘महाराज ! यह दूध लाया हूँ, पी लीजिये ।’ बाबाजी पहले हँसे, फिर बोले–‘वाह ! वाह ! तू बड़ा विचित्र
बहुरूपिया है, पहले लाठी मारता है, फिर दूध पिलाता है !’ वह आदमी
बोला–‘महाराज ! मैंने लाठी नहीं मारी है, लाठी मारनेवाला दूसरा था !’ बाबाजी बोले–‘नहीं, मैं तुझे पहचानता हूँ, लाठी मारनेवाला तू
ही था । तेरे सिवाय दूसरा कौन आये, कहाँसे आये और कैसे आये ? बता ! यह केवल तेरी
ही लीला है !’ इस प्रकार बाबाजीकी दृष्टि तो ‘वासुदेवः
सर्वम्’ पर थी, पर वह आदमी डर रहा था कि बाबाजी
कहीं मेरेको फँसा न दें ! तात्पर्य है कि सब रूपोंमें भगवान् ही हैं । गोस्वामी
तुलसीदासजी महाराज कहते हैं–
सीय राममय सब जग जानी ।
करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी ॥
(मानस, बालकाण्ड ८/१)
भगवान्के एक-एक रोममें करोड़ों ब्रह्माण्ड हैं–
रोम रोम प्रति लागे कोटि कोटि ब्रह्मंण्ड ॥
(मानस,
बालकाण्ड २०१)
वास्तवमें उन ब्रह्माण्डोंके रूपमें भगवान् ही
प्रकट हुए है ! इस वास्तविक बातको स्वीकार करनेके लिये न कोई पोथी पढ़नी है, न कोई
ध्यान करना है, न कोई चिन्तन करना है, न श्रवण-मनन-निदिध्यासन करना है, न आँख मीचनी
है, न नाक दबानी है, न योगाभ्यास करना है, न प्राणायाम करना है, न जंगलमें जाना
है, न गुफामें जाना है, न हिमालयमें जाना है ! केवल अनेक रूपोंमें आये अपने प्यारे
प्रभुको पहचान लेना है और मस्त रहना है अथवा प्रभुकी दी हुई शक्तिसे जप, ध्यान, स्वाध्याय आदि सब कुछ उन्हींके लिये
करना है ।
प्रश्न–सब
कुछ परमात्मा ही हैं–इसको ठीक तरहसे मान लिया तो क्या अब कुछ करना, जानना और पाना
बाकी नहीं रहा ?
उत्तर–यदि ‘सब कुछ परमात्मा ही हैं’–इसका अनुभव हो गया है, तब तो ठीक है, नहीं तो
केवल सीख लिया है । सीखकर मनुष्य अभिमान कर लेता है कि मैं तो सिद्ध हो गया ! इससे
उसका पतन हो जाता है । कारण कि
अभिमान होनेसे मनुष्य अपनेको ज्ञानी और दूसरोंको अज्ञानी समझता है । इससे दूसरोंके
प्रति द्वेष, घृणा, क्रोध पैदा होता है, जबकि ‘वासुदेवः
सर्वम्’ का अनुभव होनेपर किसीके भी प्रति द्वेष, वैर, घृणा, क्रोध आदि नहीं
होते[1] । अगर वह जाननेके उद्देश्यसे ही ‘सब कुछ परमात्मा है’–ऐसा मानता है तो वह भगवत्कृपासे
जान लेता है ।
निज प्रभुमय
देखहिं जगत केहि सन करहिं बिरोध ॥
(मानस, उत्तरकाण्ड ११२ ख)
|