।। श्रीहरिः ।।


       आजकी शुभ तिथि–
भाद्रपद कृष्ण सप्तमीवि.सं.२०७७मंगलवार
सर्वत्र भगवद्दर्शन


परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिमें देरी होनेका एकमात्र कारण है‒उत्कट अभिलाषाकी कमी और इस कमीका कारण है‒सांसारिक सुखकी चाहना । हमें परमात्माकी प्राप्ति हो जाय, हमारा कल्याण हो जाय । हमें तत्त्वज्ञान हो जाय, हमारा भगवान्‌में प्रेम हो जाय, हम जीवन्मुक्त हो जायँ, हम जन्म-मरणसे रहित हो जायँ, हम सब दुःखोंसे छूट जायँ[1] आदि किसी भी एक बातकी जोरदार इच्छा होनी चाहिये कि उसके बिना रह न सकें । जैसे, किसीके मनमें यह जोरदार इच्छा हो जाय कि गंगा कैसे मिले ? गंगाके पासमें कैसे पहुँचें ? गंगाको कैसे जानें ? गंगाके दर्शन कैसे हों ? और कोई जानकार आदमी सामने बहती हुई नदीकी तरफ संकेत करके बता दे कि यही गंगा है तो गंगाकी प्राप्तिमें कितनी देरी लगी ? क्या परिश्रम हुआ ? पहले अपनी दृष्टिमें वह नदी थी, अब दृष्टि चली गयी कि यह तो गंगा है‒इतनी ही बात है ‍!

एकबार किसी भाईने सेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दकासे कहा कि हमें भगवान्‌के दर्शन करा दो ! सेठजीने कहा कि भाई, हमारी सामर्थ्य नहीं है । उसने फिर कहा तो सेठजी बोले कि मैं दर्शन करा दूँ तो आप मानोगे नहीं । अगर आप मान लोगे तो दर्शन करा देता हूँ । उसने कहा कि आप सत्यवादी हैं‒ऐसा प्रसिद्ध है । अतः आप कहोगे तो मैं मान लूँगा । सेठजी उसको बाहर ले गये और सूर्यकी तरफ संकेत करके बोले कि देखो, ये भगवान्‌ हैं ! वह भाई बोला कि सूर्यको तो हम नित्य देखते हैं ! सेठजीने कहा कि शास्त्रोंने सूर्यको भगवान्‌ कहा है । ईश्वरकोटिके पाँच देवातओंमें भी सूर्यका स्थान है । अतः सूर्य भगवान्‌ हैं‒इसमें क्या सन्देह है ? तात्पर्य है की भगवान्‌की प्राप्तिमें देरी नहीं है । परन्तु उसकी प्रप्तिकी उत्कट अभिलाषा नहीं है, इसलिए देरी हो रही है ।

अगर घरमें कोई आदमी भूखा हो तो आप उसको दाल, भात, हलवा, पूरी आदि कुछ भी बनाकर दे सकते हैं, पर भूख नहीं दे सकते । भूख तो खुदकी चाहिये । उत्कट अभिलाषा होनेपर भगवत्प्राप्तिमें देरीका कारण ही नहीं है । आप देखनेको तैयार और भगवान्‌ दिखनेको तैयार, फिर देरीका कारण क्या है ?

भगवान्‌की प्राप्ति बड़ी भारी सुलभ है ! ऐसा सुलभ दूसरा कोई काम हो ही नहीं सकता । सुलभता-दुर्लभता, सुगमता-कठिनता तो वहाँ होती है, जहाँ कुछ करना पडता है अथवा जहाँ प्रापणीय तत्त्वसे दूरी होती है । जहाँ कुछ करना ही नहीं पडता, केवल जानना अथवा मानना ही पडता है, उसमें क्या सुलभता और क्या दुर्लभता ? क्या सुगमता और क्या कठिनता ? भगवान्‌ अत्यंत सुलभ कैसे हैं ? अब इसपर विचार किया जाता है ।

साक्षात् भगवान्‌ श्रीकृष्णके वचन हैं‒

बहूनां जन्मनामन्ते   ज्ञानवान्मां प्रपद्यते ।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ॥
                                                 (गीता ७/१९)

‘बहुत जन्मोंके अन्तमें अर्थात् मनुष्यजन्ममें ‘सब कुछ वासुदेव ही है’‒ऐसा जो ज्ञानवान मेरे शरण होता है, वह महात्मा अत्यंत दुर्लभ है ।’

तात्पर्य है कि मनुष्य, पशु, पक्षी, वृक्ष, खम्भा, मकान, जमीन, कपड़ा आदि जो कुछ भी देखने, सुनने, चिन्तन करने आदिमें आ रहा है, वह सब भगवान्‌ ही हैं । भगवान्‌के सिवाय किंचिन्मात्र भी दूसरी चीज नहीं है‒इस बातको अभी, वर्तमानमें ही मान लें ।



[1] परमात्माकी प्राप्ति, कल्याण, तत्त्वज्ञान आदि सभी वास्तवमें एक ही हैं ।