स्वयं भगवान्के वचन हैं‒
मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय ।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ॥
(गीता
७/७)
‘हे धनञ्जय ! मेरेसे बढ়कर (इस जगत्का) दूसरा कोई किंचिन्मात्र भी कारण नहीं है ।
जैसे सूतकी मणियाँ सूतके धागेमें पिरोयी हुई होती हैं, ऐसे ही सम्पूर्ण जगत्
मेरेमें ही ओतप्रोत है ।’
बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम् ।
(गीता ७/१०)
‘हे पृथानन्दन ! सम्पूर्ण प्राणियोंका अनादी
बीज मुझे जान ।’
ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्च ये ।
मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं तेषु
ते मयि ॥
(गीता ७/१२)
‘जितने भी सात्विक, राजस् और तामस भाव हैं, वे सब मेरेसे ही
होते हैं‒ऐसा समझो । परन्तु मैं उनमें और वे मेरेमें नहीं हैं ।’
यच्चापि सर्वभूतानां
बीजं
तदहमर्जुन ।
न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम् ॥
(गीता १०/३९)
‘हे अर्जुन ! सम्पूर्ण प्राणियोंका जो बीज
है, वह बीज मैं ही हूँ; क्योंकि मेरे बिना कोई भी चर-अचर प्राणी नहीं है अर्थात्
चर-अचर सब कुछ मैं ही हूँ ।’
जैसे बीज ही वृक्ष बन गया है, ऐसे ही भगवान् ही संसार बने
हैं । भगवान् ही सम्पूर्ण स्थावर-जंगम प्राणियोंके बीज हैं । इतना ही नहीं, इससे
भी आगे भगवान् कहते हैं‒‘सदसच्चाहमर्जुन’ (गीता ९/१९)
‘सत् और असत् भी मैं ही हूँ ।’ संसारमें सत्
और असत्के सिवाय और कुछ भी नहीं है । संसार असत् है, उसमें रहनेवाला
परमात्मतत्त्व सत् है । शरीर असत् है, उसमें रहनेवाला जीवात्मा सत् है ।
शरीर-संसार परिवर्तनशील हैं, जीवात्मा और परमात्मा अपरिवर्तनशील हैं । शरीर-संसार नाशवान् हैं, जीवात्मा और परमात्मा अविनाशी हैं । भगवान्
कहते हैं कि परिवर्तनशील भी मैं हूँ और अपरिवर्तनशील भी मैं हूँ; नाशवान् भी मैं
हूँ और अविनाशी भी मैं हूँ । अर्जुन भी कहते हैं‒‘त्वमक्षरं
सदसत्ततपरं यत्’ (गीता ११/३७) ‘आप सत् भी हैं,
असत् भी हैं और सत्-असत्से परे जो कुछ भी है, वह भी आप ही हैं ।’
अब भगवान्की प्राप्तिमें देरी किस बातकी है ? परिश्रम किस
बातका है ? ये गंगाजी हैं‒इसमें क्या देरी लगी ? क्या परिश्रम पड़ा ? भगवान् तो गंगाजीसे भी विलक्षण हैं । गंगाजी तो एक जगह हैं,
पर भगवान् सब जगह हैं । भगवान् स्वयं कह रहे हैं कि सब कुछ मैं-ही-मैं
हूँ, मेरे सिवाय और कुछ नहीं है‒‘मत्तः परतरं
नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय’ (गीता ७/७) । यदि कोई कहे कि इस बातपर हमारा
विश्वास नहीं है तो यह उसकी कमी है, तत्त्वकी कमी नहीं है । भगवान्पर विश्वास नहीं करेंगे तो क्या उस शरीर या संसारपर
विश्वास करेंगे, जो क्षणभंगुर है, नाशवान् है ? भगवान्की वाणीपर तो विश्वास करते
नहीं और चाहते हैं अपना कल्याण ! यह कैसे सम्भव है ? भगवान्के वचनोंपर विश्वास न
करना भगवान्का तिरस्कार है, अपराध है । अगर उनके वचन हमारी समझमें नहीं आये तो
यह बात दृढ়तासे मान
लें कि हमारी समझमें कमी है, तत्त्वमें कमी नहीं है । फिर अनुभव हो जायगा । कारण कि सच्ची बात सच्ची ही रहेगी, झूठी कैसे हो जायगी ? भले ही हमारी समझमें नहीं
आये, हमारी दृष्टिमें नहीं आये, पर सब कुछ भगवान् ही हैं‒इसमें कोई सन्देह नहीं
है ।
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