सब कुछ भगवान् ही हैं‒इस बातको कोई जानना चाहे
तो वह एकान्तमें बैठ जाय और यह प्रार्थना शुरू कर दे कि हे नाथ ! मैं आपको कैसे
जानूँ‒‘कथं विद्यामहं
योगिंस्त्वां सदा परिचिन्तयन्’ (गीता १०/१७) सब कुछ आप ही हैं‒इसको मैं कैसे जानूँ ! कैसे जानूँ ! कैसे
जानूँ ! इस तरह
भीतरसे लगन लगा दे । एक कहानी है । एक बहुत दरिद्र आदमी था । वह एक
महात्माके पास गया और बोले कि ‘महाराज !
मेरेपर बहुत कर्जा है । खाने-पीनेकी, रहनेकी, कपडे়की बहुत
तंगी है । ऐसी कृपा करो कि कर्जा उतर जाय ।’ महात्माने पूछा कि ‘तेरे घरमें बड़ी
चीज क्या है ?’ वह बोला कि ‘एक स्नान करनेकी बड़ी शिला है, जिसपर बैठकर मैं स्नान किया करता हूँ । उससे बड़ी और कोई चीज नहीं है ।’ महात्मा बोले
कि ‘तू अभी जाकर बैठ जा और कहना शुरू कर दे कि यह शिला सोनेकी हो जाय....शिला
सोनेकी हो जाय..... शिला सोनेकी हो जाय..... शिला सोनेकी हो जाय ! इतना सोना तो
काफी है न ?’ वह बोला कि ‘महाराज ! कर्जा तो उसके एक टुकडे়से ही
उतर जायगा !’ महात्मा बोले कि ‘अब तू जा और चौबीस घण्टेतक इस बातकी धुन लगा दे ।’
वह आदमी घर गया और ‘शिला सोनेकी हो जाय’‒ऐसा कहना शुरू कर दिया । ऐसा कहते-कहते
तेईस घण्टे बीत गये तो उसने देखा कि अभी शिलाका एक टुकड़ा भी सोनेका नहीं हुआ । फिर
भी वह कहता गया । चौबीस घण्टे पूरा होनेमें पाँच-दस मिनट रह गये, तब भी शिला नहीं
बदली । पर वह कहता गया । जब एक मिनट बाकी रहा, तब वह कहते-कहते उकता गया और बोला
कि सोनेकी नहीं तो लोहेकी ही हो जाय ! उसके ऐसा कहते ही चट वह शिला लोहेकी हो गयी
! उसने महात्माके पास जाकर कहा कि ‘महाराज ! वह शिला तो लोहेकी हो गयी ! वह या तो
पत्थरकी ही रहती या सोनेकी हो जाती, लोहेकी कैसे हो गयी ?’ महात्माने कहा कि तुने
कहा होगा, तभी तो वह लोहेकी हो गयी । ‘तू उकता गया, इसलिये तेरे कहनेसे वह लोहेकी
हो गयी । अगर तू उकताता नहीं और ‘शिला सोनेकी हो जाय’‒यह कहता रहता तो वह सोनेकी
ही हो जाती; क्योंकि वही समय कहनेका था ।’
इस तरह साधकको चाहिये कि वह उकाताए नहीं और आठों
पहर भगवान्के पीछे पड় जाय कि ‘मैं
आपको कैसे जानूँ !’ ‘हे नाथ ! मैं आपको जान जाऊँ !’ ऐसी प्रार्थना सभी कर सकते हैं; क्योंकि भगवान्के अंश
होनेसे सबका भगवान्पर अधिकार है । भूख तंग करे तो रोटी
खा ले, प्यास तंग करे तो जल पी ले, नींद तंग करे तो सो जाय, पर अपनी लगन नहीं
छोड़ें । मन लगे चाहे न लगे, ध्यान लगे चाहे न लगे, पर प्रार्थना नहीं छोड़े ।
भगवान् बड़े दयालु हैं, प्राणिमात्रके सुहृद हैं‒‘सुहृदं
सर्वभूतानाम्’ (गीता ५/२९) । दया करके वे अपने-आपको जना देंगे । शिला तो सोनेकी बनती है, है नहीं; पर संसार भगवतस्वरूप बनता
नहीं, वह तो भगवतस्वरूप ही है । केवल अपनी धारणा बदलनी है । इसलिए गोपियाँ
भगवान्से प्रार्थना करती हैं‒‘दयित दृश्यताम्’ (श्रीमद्भा॰ १०/३२/१) प्यारे ! आप
दिख जाओ !’ तो भगवान् उनके बीचमें ही प्रकट हो गये‒‘तासामाविरभूच्छौरिः’
(श्रीमद्भा॰ १०/३२/२) । इससे सुगम साधन और क्या होगा ?
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