।। श्रीहरिः ।।


       आजकी शुभ तिथि–
भाद्रपद शुक्ल अष्टमीवि.सं.२०७७, बुधवा
श्रीराधाष्टमी
भगवन्नाम


“ होहि राम को नाम जपु ”

मीराबाई इतनी बड़ी हो गयी इसमें कारण क्या है ? ‘मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरों न कोई’‒इसमें विलक्षण बात है कि दूसरा मेरा कोई नहीं है । मेरे तो भगवान्‌ हैं । इसका भगवान्‌पर असर पड़ता है । अनन्यभावसे उसने आश्रय ले लिया । भगवान्‌के हम हैं । और इसमें एक बात समझनेकी है कि प्रभुने किसीका त्याग नहीं किया है । यह जीव उनसे विमुख हुआ है । भगवान्‌ विमुख नहीं हुए हैं । वे सदैव ही जीवके ऊपर कृपा करते रहते हैं कि मेरा ही है और मानते भी हैं । आप हैं प्रभुके ही, पर गलती यह कर ली कि संसारको अपना मान लिया और अपनेको संसारका मान लिया । यह बड़ी भूल की है । इस गलतीका सुधार कर लें । भगवान्‌ हमारे हैं और हम भगवान्‌के हैं ।

देखो ! जो कपूत होता है, वह पूत नहीं होता है‒ऐसा नहीं है । सपूत भी पूत है और कपूत-से-कपूत भी पूत है । एक कल्पना करो कि यहाँसे किसीका लड़का चला गया बम्बई, वहाँ जाकर बड़ी उद्दण्डता की, बहुत गलतियाँ कीं, लोगोंको दुःख दिया तो फँस गया कैदमें । कैदसे छूटकर घरपर आ गया तो बड़ी अपकीर्ति हुई । वहाँका कोई आदमी यहाँ आकर कहने लगा कि अमुक-अमुक नामका लड़का ऐसा-ऐसा कपूत निकला और संयोगवश उसका पिता वहाँ बैठा है तो लोग कहते हैं‒‘तुम जिसके लिये कहते हो, वह इनका बेटा है ।’ उनसे पूछा कि आपका लड़का है क्या ? तो वह सिरपर हाथ रखकर कहता है‒‘फूट गया, मेरा ही लड़का है !’ वह चाहे कितना पश्चात्ताप करे, पर ‘लड़का मेरा नहीं’ ऐसा नहीं, नहीं कह सकता । ऐसे ही भगवान्‌ नहीं कह सकते कि मेरा नहीं है । चाहे नारकीय जीव है, बड़े दुर्गुण-दुराचार किये हैं, बड़ी यातना, दुःख, कष्ट भोग रहा है, परन्तु भगवान्‌ यह नहीं कह सकते कि मेरा नहीं है ।


कपूताईका दण्ड देकर भगवान्‌ उसे शुद्ध करेंगे । उसे पवित्र करेंगे; क्योंकि वह भगवान्‌का अपना है । ऐसे ही भाइयो-बहनो ! हम सब कैसे ही हैं, किसी तरहके ही हैं, पर हैं तो भगवान्‌के ही । यह पक्‍की बात है । आप मानते नहीं हैं तबतक दुःख पाते हैं । आप मान लें तो यह कपूताई मिट जायगी । निर्मलता हो जायगी । भगवान्‌के सम्बन्धमात्रसे जीव पवित्र हो जाता है । ‘कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते’ (गीता १७/२७) भगवान्‌के लिये किया जाय वह सब सत् हो जाता है । जप, ध्यान, कीर्तन, सत्संग, स्वाध्याय भगवान्‌के लिये किये जायँ, वे सब ‘सत्’ हो जाते हैं । सब श्रेष्ठ कर्म हो जाते हैं । कौन सा कर्म ? ‘शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः’ (गीता १८/१५) । शरीर, वाणी, मनसे जो कर्म आरम्भ किया जायगा उसका आदि होता है और अन्त होता है । वह नित्य नहीं होता है । परन्तु भगवान्‌के लिये जो काम आरम्भ किया जाय, वह काम भी भगवान्‌का हो जायगा, सत् हो जायगा । सत् क्यों हो जायगा ? भगवान्‌ सत् हैं, भगवान्‌ नित्य हैं । प्रभुके अर्पण कर देनेसे हमारे श्रेष्ठ-से-श्रेष्ठ, उत्तम-से-उत्तम काम भी नित्य हो जायँगे । नहीं तो ये कर्म शुभ फल देकर नष्ट हो जायँगे । अच्छे शुभ कर्म भी अच्छे फल देकर, अच्छी परिस्थिति देकर नष्ट हो जायँगे । वे ही भगवान्‌के अर्पण कर दें, भगवान्‌के लिये करें तो वे सत् हो जायँगे ।