यहाँ हमें भक्त हनुमान् और राजा सुरथके भक्तिभावपूर्वक किये
हुए स्मरणके प्रभावपर ध्यान देना चाहिये । उनकी अनन्य भक्तिसे आकृष्ट होकर भगवान्
तुरंत वहाँ पहुँच गये । भगवान्के प्रेमपूर्वक अनन्य
स्मरणका बड़ा भारी माहात्मय है । भक्त सुधन्वाकी कथा देखिये, भगवान्के
स्मरणके प्रभावसे अत्यंत प्रतप्त तेल भी उनके लिये अतिशय शीतल हो गया तथा अर्जुनके
साथ युद्ध करते समय भी उनमें जगह-जगह भगवत्स्मरणका प्रभाव दिखायी पड़ता है ।
जब अर्जुनने भगवान्का स्मरण करके तीन बाण निकालकर
प्रतिज्ञा की कि इन तीन ही बाणोंसे मैं सुधन्वाका मस्तक काट डालूँगा; यदि ऐसा न कर
सकूँ तो मेरे पूर्वज पुण्यहीन होकर नरकमें गिर पड़ें तब ठीक इससे विरुद्ध सुधन्वाने
भगवान्का स्मरण करके प्रतिज्ञा की कि इन तीनों बाणोंको मैं अपने बाणोंसे काट
डालूँगा, यदि ऐसा न कर सकूँ तो मुझे घोर गति प्राप्त हो । भगवान्ने इन दोनों ही भक्तोंकी भगवत्स्मरणपूर्वक की गयी प्रतिज्ञाको सच्चा किया । भक्त अर्जुनकी रक्षाके लिये भगवान्ने पहले बाणको अपने गोवर्धनका पुण्य अर्पित
करके बाण छोड़नेका अर्जुनको आदेश दिया । अर्जुनने तदनुसार बाण छोड़ा. किन्तु
सुधन्वाने भगवान्को याद करके अपने बाणसे उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिये, तब भगवान्ने
अर्जुनको दूसरा बाण सन्धान करनेकी आज्ञा दी और साथ ही उसे अपने अन्य अनेक पुण्य
अर्पण किये । अर्जुनके दूसरा बाण छोड़ते ही सुधन्वाने उसे भी भगवान्का स्मरण करके
काट डाला । अब तीसरा बाण रहा, भगवान्ने उसे अपने रामावतारका पुण्य अर्पण कर दिया
तथा उसके पिछले भागमें ब्रह्माजी और बीचमें कालको जोड़कर अग्रभागमें स्वयं आ विराजे
एवं अर्जुनको बाण चलानेकी आज्ञा दी । जब अर्जुनने तीसरा बाण छोड़ा, तब सुधन्वाने भगवान्से कहा–‘भगवन्
! आप स्वयं इस बाणमें विराजमान हैं, यह मैं जान गया हूँ । अब आप मुझे अपने चरणोंमें आश्रय देकर कृतार्थ करें ।’
यों कहकर भगवान्का स्मरण करते हुए उन्होंने अपने बाणसे उसके भी दो टुकड़े कर दिये ।
उन दो टुकड़ोंमेंसे पिछला भाग पृथ्वीपर गिर पड़ा तथा अग्रभागवाला टुकड़ा जिसपर भगवान्
श्रीकृष्ण विराजे थे, उछला और उसने सुधन्वाका मस्तक काट डाला । सुधन्वाका सिर कटकर भगवान्के चरणोंमें आ गिरा । अपने सम्मुख भगवान्का
दर्शन करते हुए उसके मुखसे एक ज्योति निकलकर भगवान्में प्रवेश कर गयी ।
अतएव भगवत्स्मृतिके प्रभावको लक्ष्यमें रखकर
हमें भी प्रत्येक क्रिया भगवान्का स्मरण रखते हुए ही करनी चाहिये । सांसारिक
कार्य करते हुए भी नित्य-निरन्तर भगवान्का स्मरण होते रहना चाहिये । परन्तु जब एकान्तमें भगवान्का
भजन, स्मरण, सेवा-पूजा आदि नित्यकर्मके लिये बैठें, उस समय तो संसारका स्मरण
किंचित भी न हो–ऐसा विशेष खयाल रखनेकी आवश्यकता है । भगवत्स्मरण नित्य-निरन्तर होनेके लिये भगवान्में
अनन्य प्रेम, सत्पुरुषोंका संग, सच्छास्त्रोंका मननपूर्वक स्वाध्याय, भगवान्के
नामका जप, भगवान्की स्तुति-प्रार्थना, भगवत्कृपासे निरन्तर स्मृति बनी रहनेका दृढ़
विश्वास और हर समय सावधानीपूर्वक उस स्मृतिको बनाये
रखनेकी चेष्टा–ये सात विशेष सहायक हैं । इन सातोंका अनुष्ठान करते हुए जो एकमात्र भगवान्का
ही अनन्य स्मरण करता है, उसकी सम्पूर्ण विघ्न-बाधाओंका नाश
हो जाता है और उसे शीघ्र ही भगवत्प्राप्ति हो जाती है । भगवान्के स्मरणका
प्रभाव और महात्म्य क्या बतलाया जाय–
यस्य स्मरणमात्रेण जन्मसंसारबन्धनात् ।
विमुच्यते नमस्तस्मै विष्णवे प्रभविष्णवे ॥
‘जिसके स्मरणमात्रसे मनुष्य आवागमनरूप
बन्धनसे छूट जाता है, सबको उत्पन्न करनेवाले उस परम प्रभु श्रीविष्णुको बार-बार
नमस्कार है ।’
नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
–‘जीवनका कर्तव्य’ पुस्तकसे
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