प्रश्न–संसारमें
कोई दुराचारी दिखे तो उसको भगवत्स्वरूप कैसे मानें ?
उत्तर–ऐसा मानना चाहिये कि वे भी भगवान् ही हैं, पर अभी
कलियुगकी लीला कर रहें हैं । अभी कलियुग है, इसलिये वे युगके अनुसार लीला
करते हैं । भगवान्ने वराहरूप धारण किया तो वराहकी तरह ही आचरण किया । वराह भगवान्को
देखकर हिरण्याक्ष उनको ‘वनगोचरमृग’ (जंगली जानवर)
कहकर पुकारता है और भगवान् उसको ‘ग्रामसिंह’
(कुत्ता) कहकर पुकारते हैं (श्रीमद्भागवत ३/१८/२,१०) । वे जैसा रूप धारण करते हैं,
वैसी ही लीला करते हैं ।
प्रश्न–संसारको
परमात्माका स्वरूप भी कहते हैं और दुःखोंका घर भी कहते हैं–‘दुःखालयमशाश्वतम्’ (गीता ८/१५) । अगर यह परमात्माका स्वरूप है तो दुःखोंका घर कैसे और दुःखोंका
घर है तो परमात्माका स्वरूप कैसे ?
उत्तर–ये दोनों बातें ठीक हैं । जो संसारसे कुछ नहीं
चाहता, प्रत्युत दूसरोंकी सेवा करता है, उनको सुख देता है, उसके लिये संसार
परमात्माका स्वरूप है और जो संसारसे सुख लेना चाहता है, उसके लिये संसार दुःखोंका
घर है । सुख चाहनेवालेको
दुःख मिलेगा ही–यह अकाट्य नियम है ।
भक्तियोगकी दृष्टिसे सब संसार भगवान्का स्वरूप
है और ज्ञानयोगकी दृष्टिसे संसार असत्, जड तथा दुःखरूप है । ज्ञानयोगमें विवेक मुख्य रहता है और विवेकमें सत्-असत्,
जड-चेतन, नित्य-अनित्य, नाशवान-अविनाशी दोनों रहते हैं । विवेकी पुरुष संसारको दुःखरूप
मानकर उसका त्याग करता है–‘दुःखमेव सर्वं विवेकिनः’
(योगदर्शन २/१५) । इसलिए ज्ञानकी दृष्टिसे संसारका त्याग करना है और
भक्तिकी दृष्टिसे सबको भगवत्स्वरूप मानकर प्रणाम करना है । भागवतमें आया है–
विसृज्य स्वयमानान् स्वान् दृशं व्रीडां च दैहिकीम् । प्रणमेद् दण्डवद् भूमावाश्चचाण्डालगोखरम् ॥ (श्रीमद्भागवत ११/२९/१६)
‘अपने ही लोग यदि हँसी करें तो करने दे, उनकी
परवाह न करे, प्रत्युत अपने शरीरको लेकर जो लज्जा आती है, उसको भी छोड़कर कुत्ते,
चाण्डाल, गौ एवं गधेको भी पृथ्वीपर लम्बा गिरकर साष्टांग प्रणाम करे ।’
भक्त कुत्ते, चाण्डाल आदिको प्रणाम नहीं करता,
प्रत्युत उन रूपोंमें आये भगवान्को प्रणाम करता है । जब भगवान् राम भरद्वाजजीसे मिलते हैं, तब भरद्वाजजी
भगवान्को प्रणाम करते हैं और भगवान् भरद्वाजजीको प्रणाम करते हैं–
मुनि रघुबीर परस्पर नवहीं । बचन अगोचर सुखु अनुभवहीं ॥
(मानस, अयोध्याकाण्ड १०८/२)
भगवान् राम
तो क्षत्रिय होनेसे ब्राह्मणको प्रणाम करते हैं और भरद्वाजजी भक्त होनेसे भगवान्को प्रणाम करते हैं । इस प्रकार एक-दूसरेको प्रणाम करनेसे
उनको अलौकिक, विलक्षण आनन्द मिलता है ! इसी तरह संसारमें
अनेक रूपोंसे प्रकट हुए भगवान्को प्रणाम करके आनन्दित होना चाहिये ।
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