शरीर-निर्वाहके लिये तो चिन्ता (विचार)
करनेकी जरूरत ही नहीं है, पर शरीर छूटनेके बाद क्या होगा–इसके लिये चिन्ता करनेकी
जरूरत है । ॰॰॰॰॰
॰॰॰॰॰ ॰॰॰॰॰ जो होनेवाला है, वह होकर ही रहेगा और जो नहीं
होनेवाला है, वह कभी नहीं होगा, फिर चिन्ता किस बातकी ? ॰॰॰॰॰
॰॰॰॰॰ ॰॰॰॰॰ हमें अपने लिये कुछ नहीं चाहिये; क्योंकि
स्वरूपमें अभाव नहीं है और शरीरको जो चाहिये, वह प्रारब्धके अनुसार पहलेसे ही
निश्चित है, फिर चिन्ता किस बातकी ? ॰॰॰॰॰ ॰॰॰॰॰
॰॰॰॰॰ भगवान्की ओरसे हमारे निर्वाहका प्रबन्ध तो
है, पर भोगका प्रबन्ध नहीं है । इसलिये निर्वाहकी चिन्ता और भोगकी इच्छा नहीं करनी
चाहिये । ॰॰॰॰॰
॰॰॰॰॰ ॰॰॰॰॰ भगवान् जो कुछ करते हैं और करेंगे, उसीमें
मेरा हित है–ऐसा विश्वास करके हर परिस्थितिकी प्राप्तिमें निश्चिन्त रहना चाहिये । ॰॰॰॰॰
॰॰॰॰॰ ॰॰॰॰॰ दुःख-चिन्ताका कारण वस्तुओंका अभाव नहीं है,
प्रत्युत मूर्खता है । यह मूर्खता सत्संगसे मिटती है । ॰॰॰॰॰
॰॰॰॰॰ ॰॰॰॰॰ मनुष्य ज्यों-ज्यों अपने शरीरकी चिन्ता छोड़ता
है, त्यों-त्यों उसके शरीरकी चिन्ता संसार करने लगता है । ॰॰॰॰॰
॰॰॰॰॰ ॰॰॰॰॰ भगवान्के भरोसे रहनेपर किसी प्रकारकी चिन्ता
टिक ही नहीं सकती । ॰॰॰॰॰
॰॰॰॰॰ ॰॰॰॰॰ जिसे नहीं करना चाहिये, उसे करनेसे और जिसे
करना चाहिये, उसे नहीं करनेसे चिन्ता और भय होते हैं । ॰॰॰॰॰
॰॰॰॰॰ ॰॰॰॰॰ भगवान् हमसे ज्यादा जानते हैं, हमसे ज्यादा
समर्थ हैं और हमसे ज्यादा दयालु है, फिर हम चिन्ता क्यों करें ? चिन्ता दीनदयालको, मो
मन सदा अनन्द । जायो सो प्रतिपालसी,
रामदास गोविन्द ॥ ॰॰॰॰॰
॰॰॰॰॰ ॰॰॰॰॰ चाह गयी चिन्ता
मिटी, मनुआँ बेपरवाह । जिसको कछू न चाहिये, साहनपति साह ॥ ॰॰॰॰॰
॰॰॰॰॰ ॰॰॰॰॰ प्रारब्ध पहले रचा, पीछे
रचा
शरीर । तुलसी चिन्ता क्यों करे, भज ले श्रीरघुवीर ॥ ॰॰॰॰॰
॰॰॰॰॰ ॰॰॰॰॰ मुरदेको हरि देत है,
कपडो लकड़ी आग
। जीवित नर चिन्ता करे, उनका बड़ा अभाग ॥ ॰॰॰॰॰
॰॰॰॰॰ ॰॰॰॰॰ चिन्ता चितासम ह्युक्ता बिन्दुमात्रं विशेषतः ।
सजीवं दहते चिन्ता
निर्जीवं
दहते चिता ॥ ‘चिन्ताको चिताके समान कहा गया है, केवल एक
बिन्दुकी ही अधिकता है । चिन्ता जीवित पुरुषको जलाती है और चिता मरे हुए पुरुषको
जलाती है ।’ |