(१) परमात्माके संगसे योग और संसारके संगसे भोग होता है । (२) सुखकी इच्छा, आशा और भोग‒ये तीनों ही
सम्पूर्ण दुखोंके कारण है । (३) सुखकी इच्छाका त्याग करानेके लिये ही दुःख आता है । (४) शरीरको ‘मैं’ और ‘मेरा’ मानना प्रमाद है;
प्रमाद ही मृत्यु है । (५) नाशवान्को महत्त्व देना ही बन्धन है । (६) नाशवान्की चाहना छोड़नेसे अविनाशी तत्त्वकी
प्राप्ति होती है । (७) शरीरसे अपना सम्बन्ध मानना कुसंग है । (८) आप भगवान्को नहीं देखते, पर भगवान् आपको
निरन्तर देख रहे हैं । (९) ऐसा होना चाहिये, ऐसा नहीं होना
चाहिये‒इसीमें सब दुःख भरे हुए है । (१०) अपने स्वभावको शुद्ध बनानेके समान कोई उन्नति
नहीं है । (११) अच्छाईका अभिमान बुराईकी जड़ है । (१२) मिटनेवाली चीज एक क्षण भी टिकनेवाली नहीं है
। (१३) शरीरको मैं-मेरा माननेसे तरह-तरहके और अनन्त
दुःख आते हैं । (१४) दूसरोंके दोष देखनेसे न हमारा भला होता है, न
दूसरोंका । (१५) नाशवान्की दासता ही अविनाशीके सम्मुख नहीं
होने देती । (१६) आप भगवान्के दास बन जाओ तो भगवान् आपको
मालिक बना देंगे । (१७) आराम चाहनेवाला अपनी वास्तविक उन्नति नहीं कर
सकता । (१८) परमात्मा दूर नहीं हैं, केवल उनको पानेकी
लगनकी कमी है । (१९) जबतक नाशवान् वस्तुओंमें सत्यता दिखेगी,
तबतक बोध नहीं होगा । (२०)
अपनेमें विशेषता केवल व्यक्तित्वके अभिमानसे
दीखती है । |

