(२१) भगवान्से विमुख होकर
संसारके सम्मुख होनेके समान कोई पाप नहीं है । (२२) परमात्माकी प्राप्तिमें भावकी प्रधानता है,
क्रियाकी नहीं । (२३) मनमें किसी वस्तुकी चाह रखना ही दरिद्रता है
। (२४) स्वार्थ और अभिमानका
त्याग करनेसे साधुता आती है । (२५) संसारसे विमुख होनेपर बिना प्रयत्न किये
स्वतः सद्गुण आते हैं । (२६) हमारा सम्मान हो‒इस चाहनाने ही हमारा अपमान
किया है । (२७) हमारा शरीर तो संसारमें है, पर हम स्वयं
भगवान्में ही हैं । (२८) मुक्ति इच्छाके त्यागसे
होती है, वस्तुके त्यागसे नहीं । (२९) भगवान्के लिये अपनी मनचाही छोड़ देना ही शरणागति है । (३०) संसारकी सामग्री संसारके कामकी है, अपने
कामकी नहीं । (३१) संसारसे कुछ भी चाहोगे तो दुःख पाना ही पड़ेगा
। (३२) वस्तुका सबसे बढ़िया उपयोग है‒उसको दूसरेके
हितमें लगाना । (३३) मनुष्यका उत्थान और पतन भावसे होता है,
वस्तु, परिस्थिति आदिसे नहीं । (३४) आनेवाला जानेवाला होता है‒यह नियम है । (३५) हम घरमें रहनेसे नहीं फँसते, प्रत्युत घरको अपना माननेसे फँसते हैं । (३६) ‘है’‒पनको परमात्माका न मानकर संसारका मान
लेते हैं‒यही गलती है । (३७) ‘करेंगे’‒यह निश्चित नहीं है, पर ‘मरेंगे’‒यह
निश्चित है । (३८) जबतक अभिमान और स्वार्थ है, तबतक किसीके भी
साथ प्रेम नहीं हो सकता । (३९) असत्का संग छोड़े बिना सत्संगका प्रत्यक्ष
लाभ नहीं होता । (४०)
भगवान्में अपनापन सबसे
सुगम और श्रेष्ठ साधन है । |

